हयग्रीव जयंती



कौतूहल से भर जाता हूँ कि श्रावण पूर्णिमा के रोज़ क्या क्या नहीं होता?

श्रावणी, रक्षाबंधन व विश्व संस्कृत दिवस के साथ साथ हयग्रीव जयंती भी होती है। ऐसे में यदि विष्णु के हयग्रीव अवतार के साथ-साथ गिटार के तारों की सुधि न आई, तो संस्कृत का विद्यार्थी कैसा? और फिर इन सुधियों में, गिटार के तारों का चढ़ान न किया, तो क्या किया?

तो साहिबान, मेरी शब्दों की दुनिया के दोस्तो, ये बड़े ही प्राचीन काल की बात है। घोड़े के सामान ग्रीवा और मुखाकृति का एक दैत्य हुआ। उसका नाम था : “हयग्रीव”। उसने आदिशक्ति की उपासना से अमृत्व का वरदान प्राप्त करने के प्रयत्न किए। किन्तु आदिशक्ति ने ऐसा वरदान देने से इनकार कर दिया।

वैसी स्थिति में, हयग्रीव ने कहा : “माते! ऐसा वरदान दीजिए कि मेरी मृत्यु हयग्रीव के ही हाथों हो!” -- इस वरदान को प्राप्त कर हयग्रीव को ऐसा लगता था कि वो स्वयं तो स्वयं को मारेगा नहीं। अतः अब वो अमर हो चुका है।

फिर एक रोज़, श्रीहरि विष्णु ने अपनी योगमाया को निमंत्रण दिया। और "हयग्रीव" जैसा रूप लेकर "हयग्रीव" का वध किया!

पूरी कहानी का रसरंग इस तथ्य में है कि उन्होंने "हयग्रीव" जैसा रूप किस प्रकार लिया?

सर्वप्रथम श्रीविष्णु ने ब्रह्मा को एक जीव उत्पन्न करने की प्रेरणा दी। आकार आकृति में बेहद छोटा जीव, उसका नाम हुआ : “वम्री”। संस्कृत के इसी शब्द से, इंग्लिश का “वॉर्म” शब्द बना है, जिसका अर्थ होता है : “कीड़ा”!

ब्रह्मा का बनाया जीव “वम्री”, ईश्वरीय प्रेरणा से क्षीरसागर में जा पहुंचा और विष्णु के सिरहाने रखे “शार्ङ्ग” धनुष की प्रत्यंचा काट दी। और इस प्रत्यंचा की इस टूटन से श्रीविष्णु अपने मस्तक और देह दो भागों में विभक्त हो गए।

इस घटना के ठीक पश्चात्, ब्रह्मा ने योगमाया की सहायता से उनकी देह को हयग्रीव जैसे ग्रीवा और मुखाकृति से जोड़ दिया। इस प्रकार, श्रीहरि के हयग्रीव अवतार का आयोजन हुआ!



इस तरह प्रत्यंचा के तार का टूटना, ठीक वैसे ही है, जैसे गिटार के तारों के चढ़ान में उन तारों का टूटना। हालांकि वे तारें संगीतकार के ग्रीवा को तो नहीं काट पातीं, किन्तु उसके स्वप्नों को अवश्य काट देती हैं।

संगीतकार यदि संस्कृत का विद्यार्थी भी है, तो गिटार की तारों के चढ़ान में सकुचाया-सा रहता है। कहीं टूट न जाए? कहीं इससे मेरे स्वप्न क्षत विक्षत न हो जाएं? आदि आदि इत्यादि विचार उसके हृदय में मंडराते हैं!

बहरहाल, बहरकैफ।

हम गिटार की धूल से लिपटी तारों को चढ़ाते रहे और "भर्तृमेंठ" को याद करते रहे! जानते हैं क्यों?

चूँकि महाकवि भर्तृमेंठ का एक महाकाव्य है : “हयग्रीववध”। इस विषय पर महाकाव्य का होना प्रसन्नता का विषय है। किन्तु इससे ज्यादा दुःख की बात ये है कि इस महाकाव्य को विलुप्त हुए सदियां बीत चुकी हैं!

इस महाकाव्य में, दैत्य हयग्रीव का वध श्रीहरि विष्णु के हयग्रीव अवतार के हाथों होने की कथा का प्रकाशन किया गया है। इतिहास में इस पुस्तक की पाण्डुलिपि, एक नहीं बल्कि दो दो मनुष्यों के स्वार्थ का शिकार हुई है।

पहले तो हैं, श्री भर्तृमेंठ को आश्रय देने वाले कश्मीर के राजा “मातृगुप्त” और दूजे हैं, स्वयं को भर्तृमेंठ का अवतार कहने वाले, “काव्यमीमांसा” जैसे महान ग्रंथ के प्रवर्तक : श्री “राजशेखर”!



कश्मीर के प्रसिद्ध महाकवि, “राजतरंगिणी” के प्रवर्तक, श्री “कल्हण” ने भर्तृमेंठ के विषय में बड़ा विस्तार से लिखा है।

कहते हैं, श्री भर्तृमेंठ अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में उज्जयिनी के राजा “विक्रमादित्य” द्वितीय के दरबार में आश्रित कवि थे। और आखिरी वर्षों में, कश्मीर के राजा मातृगुप्त के आश्रित रहे।

इसे आधार बना कर अन्वेषित किया जावे, तो इनका काल चौथी शताब्दी के आसपास का होगा।

एक रोज़, भर्तृमेंठ ने मातृगुप्त को “हयग्रीववध” महाकाव्य पढ़कर सुनाया, तो मातृगुप्त मौन ही रह गए। ईश्वर जाने कि ये महाकाव्य का सौंदर्य था या काठिन्य कि मातृगुप्त ने “साधु साधु” तक भी न कहा!

श्री कल्हण यहाँ कोट करते हैं : “आ समाप्ति ततो नापत् साधु-साध्विति वा वच:” -- यानी कि महाकाव्य के दौरान तो आद्यन्त कुछ न कहा, और न ही समाप्ति पर प्रशंसा की।

और जब "भर्तृमेंठ" ने उन्हें पुस्तक भेंट की तो उन्होंने उस पुस्तक को एक थाल में रखकर, सोने से ढँक कर रख लिया, अपने खजाने में पहुंचा दिया।

कवि के द्वारा इस रहस्यमयी कार्य का कारण पूछे जाने पर मातृगुप्त बोले : “इस पुस्तक में इतना रस और इतना सौंदर्य लबालब भरा है, कि अगर मैं इसके चहुंओर स्वर्ण की बाधा निर्मित न करूँ, तो वो सौंदर्य वो रस निकल कर बह जाएगा!”

इस तरह एक महान पुस्तक, कश्मीर के राजकोष में स्वर्ण से लिपटी हुई पड़ी रही। उसे न पाठक मिले और न ही मिला कवि का स्वान्त सुख!



कालान्तर में, श्री राजशेखर हुए। वे भर्तृमेंठ की कीर्ति सुनकर कश्मीर जा पहुंचे और उस राज्य के कोष से वो पुस्तक “हयग्रीववध” प्राप्त करने का प्रयत्न किया।

उस समय तक न तो भर्तृमेंठ शेष थे और न ही मातृगुप्त। साथ ही, वो पुस्तक कोई संपत्ति तो थी नहीं, जिसका कि लेखा जोखा खजांची के पास उपलब्ध होता।

सो, ईश्वर जाने कि वो पुस्तक राजशेखर को मिली या नहीं मिली।

संसार इतना अवश्य जानता है कि कश्मीर के प्रवास से लौटकर, राजशेखर ने तत्कालीन संस्कृत काव्यशास्त्र का समीक्षात्मक इतिहास "काव्यमीमांसा" लिखा, तो भर्तृमेंठ की "हयग्रीववध" के कुछ पद भी पुस्तक में अभिहित किए।

साथ ही, राजशेखर ने भर्तृमेंठ को आदिकवि “वाल्मीकि” का अवतार घोषित कर दिया। कालान्तर में, श्री राजशेखर भर्तृमेंठ में इतना डूब गए कि स्वयं को भर्तृमेंठ का अवतार घोषित कर दिया!

कदाचित्, उनसे ये सब करवाने वाली वो ऊर्जा थी, जो भर्तृमेंठ का महाकाव्य प्राप्त करने के बाद भी उसे प्रकाशित न करने का अपराधबोध दे रही थी।

एट द एंड ऑफ़ द डे, हमारे पास भर्तृमेंठ नहीं हैं, न उनका महाकाव्य “हयग्रीववध” है और न ही उनकी कोई स्मृति शेष है। यदि कुछ शेष है तो वो है श्रीविष्णु के "शार्ङ्ग" धनुष की प्रत्यंचा और गिटार के टूटते तारों की कहानी, जिसे हर श्रावणी पर याद कर लिया जाता है!

काश! कि किसी गिटारिस्ट की तारें न टूटें। कमसकम उस तरह तो बिलकुल नहीं, जैसे धनुष की प्रत्यंचा टूटी थी। उस तरह भी नहीं, जिस तरह स्वर्ण की बाधाओं तले भर्तृमेंठ का स्वप्न टूटा!

आपके सबके अटूट संगीतमयी स्वप्नों की कामना के साथ, श्रावणी की हार्दिक मंगलकामनाएं।

इति नमस्कारान्ते।

Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

  1. बहुत सुन्दर सर

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  2. हयग्रीव पर यह लेख शायद पहले पढ़ चुका हूँ..!!
    पुनः इसे शेयर करने के लिए धन्यवाद..!!

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  3. Ye lekh pahle bhi padh chuka hun. Aapka dhanyawad ek bar fir se share krne ke liye

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  4. यह अत्यंत ही ज्ञानवर्धक लेख रहा बहुत सुंदर प्रशंसनीय।

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  5. एक और ज्ञानवर्धक लेख 🙏🏼

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  6. हयग्रीव वध पर यह लेख पहले फेसबुक पर पढ़ चुका हूँ....
    इसे पुनः शेयर करने के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद....🙏

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  7. हमेशा की तरह शानदार जानदार जबरदस्त

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  8. This comment has been removed by the author.

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  9. बहुत ही सुन्दर

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  10. हयग्रीववध की कथा मेरे दादाजी सुनाया करते थे। परंतु महाकवि भ्रातृमेंठ की रचना के संबंध में इतनी बातें हमें ज्ञात नहीं थी। पढ़कर लगा कि टेलीग्राम एप्प पर केवल आपकी रचनाएं पढ़ने के लिए आना एक चतुर फैसला था।

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  11. मैं हयग्रीव के बारे में नहीं जानती थी और ना ही कभी कहीं सुना । बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक लेख होते है आपके । मैरी बेटी को इतिहास या धर्म से संबंधित कोई भी लेख बहुत पसंद आते है और पढ़ने का बहुत शौक रखती है ।
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

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  12. बहुत सुंदर। पहले भी इस लेख को पढ़ा था आपकी टाइमलाइन में। पुनः प्रेषित करने के लिए गहन आभार।

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