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Showing posts from August, 2020

जन्माष्टमी

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क्या “श्रीकृष्ण-जनमाष्टमी” लिखना आवश्यक है? या केवल “जन्माष्टमी” से ही काम चल जाएगा? सर्वविदित है, “जन्माष्टमी” शब्द से “कृष्ण” के जन्मदिवस का बोध होता है, किंतु “जन्मनवमी” जैसा कोई शब्द “राम” के जन्म हेतु प्रचलित नहीं, ऐसा क्यों भला? चूँकि “जन्माष्टमी” और जनमानस में अधिक निकटता है। जनमानस को “राम” की भाँति जीना चाहिए, किंतु चाहते हैं “कृष्ण” की भाँति जीना। “इच्छाएँ” सदैव “कर्त्तव्यों” पर भारी रही हैं! यही कारण है कि “कृष्ण” का बोध मात्र “जन्माष्टमी” शब्द से हो जाता है, वहीं “राम” का बोध “रामनवमी” से हो पाता है! “अष्टमी” व “नवमी” का एक और तथ्य है। वो ये है कि “जन्माष्टमी” की संख्या दो होती है, लगातार दो दिन। जबकि “रामनवमी” एक ही! पूरे भारत से मित्रों में फ़ोन आते हैं, और वही प्रश्न : “अनुराग, मथुरा में जन्माष्टमी कब है?” और मैं मुस्कुरा कर कहता हूँ : “यहाँ तो हर रोज़ उत्सव है मित्र!” बहरहाल, मित्रवत् हास-परिहास से इतर, यदि वाकई में दो-दो “जन्माष्टमी” के मूल कारण को जानना है, तो “जन्माष्टमी” की ज्योतिषीय अन्वेषणा करनी होगी। ज्योतिषीय यानी कि ज्योतिष से संबद्ध! “ज्योतिष” के नाम आते ही लो

किशोर दा

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चार अगस्त तो कब की गुज़र गई. मग़र किशोर दा आज याद आए! सचिन तेंदुलकर अगर क्रिकेट के बरक़्स गायकी के गुण लिए पैदा होते, तब भी किशोर कुमार से बेहतर न गा पाते। उनका स्तर सिनेमाई गायकी में सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र अथवा कि कोई तारे सितारे जैसा नहीं, बल्कि समग्र आसमान जैसा विस्तृत है। यदि इस सृष्टि के किसी आयाम में गायकी का कोई साम्राज्य हो, तो निस्सन्देह उसके अधिपति किशोर दा होंगे! ये ठीक वैसे ही है, जैसे कि मेवाड़ के अधिपति महाराणा उदय सिंह! क्या ही आश्चर्य है कि दोनों बर्थडे ट्विन्स हैं। और क्या ही ग़ज़ब का आत्मविश्वास है उस पङ्क्ति में, जो कहती है : “किशोर दा जैसे लोग पांच सौ बरस में एक बार होते हैं!” अव्वल तो पांच सौ बरस पहले महाराणा उदय सिंह हुए थे। उन्होंने अरावली की अलंघ्य पहाड़ियों से घिरी एक भूमि को अपनी राजधानी बनाया। और दूजे पांच सौ बरस बाद किशोर दा हुए। उन्होंने अनगढ़ सुरों से शिखरबद्ध आवाज़ के पर्वतों घिरी एक ऐसी दुनिया का निर्माण कर दिया, जिसे लांघना कमसकम पांच सौ बरस तक तो असंभव होगा। अपने क्षेत्र के ऐसे दो जीनियस लोगों वाले चार अगस्त को क्या नाम दूं? बेहतर होगा कि इसे डे ऑफ जीनियसिटी

रामकथा का निमंत्रण

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“रामकथा” को समय-रेखा माना जाए तो “रामायण” उसका आरंभिक बिंदु है, और “तुलसी” हैं आखिरी बिंदु! इस समय-रेखा पर, और भी बहुत से “रामकथा” ग्रन्थों की व्याप्ति है। किन्तु “वाल्मीकि” की “रामायण” और “तुलसी” के “मानस” का कोई सानी नहीं। “योगवासिष्ठ”, “आध्यात्म-रामायण”, “आनंद-रामायण”, “अद्भुत-रामायण”, “मंत्र-रामायण” और “भुशुण्डि-रामायण” जैसे “रामकथा” काव्य, “वाल्मीकि” और “तुलसी” की कृतियों के मध्य की प्रत्यक्ष कड़ियाँ हैं। इन्हीं कड़ियों में, अन्य भाषाओं की बात करें तो, “प्राकृत” में “विमलसूरि” का “पउमचरिउ” और “रविषेण” का “पद्मचरित” अव्वल है। “तमिल” में “कंबन-रामायण”, “बांग्ला” में “कृत्तिवासीय-रामायण” भी इसी कड़ी में अभिहित होंगी। और तत्पश्चात् आता है, “तुलसी” का “मानस”! उक्त सभी के क्रमशः अध्ययन से जाना जा सकता है कि किस तरह “वाल्मीकि” की “रामकथा”, “तुलसी” के “मानस” से भिन्न है और उस भिन्नता के आधार क्या हैं। इस भिन्नता पर न केवल प्रत्यक्ष कड़ियों ने, बल्कि अप्रत्यक्ष कड़ियों ने बहुधा प्रभाव डाले हैं। इस अप्रत्यक्ष सूची का आरंभ, “महाभारत” में उल्लिखित “भार्गव च्यवन” द्वार रचित “रामकथा” से होता है। अन्

श्रीराम टेक्स ऑन ड्रैगन

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आज से कोई ढ़ाई हज़ार साल पहले एशिया की पीठ पर “चीन” नाम का कैक्टस उग आया! कौन जानता था कि सर्वभक्षी होने के तमाम सीमाएं लांघने वाला ये असभ्य समाज, वर्तमान दुनिया की सबसे बड़ी जनसांख्यकी वाला देश बन जाएगा। किन्तु अप्रत्याशित रूप से वैसा ही हुआ! आज डेढ़ सौ करोड़ कीड़े लगातार एशिया की पीठ को खाए जा रहे हैं। ख़ैर! अब इन कीड़ों का इलाज स्वयं “श्रीराम” करेंगे! -- ऐसा विचार आज हांगकांग से उठा। एक चित्र वायरल हुआ, जिसमें मेघश्याम भगवान् श्रीराम धनुष पर बाण चढ़ाए “ड्रैगन” पर निशाना ले रहे हैं। चित्र के चर्चा में आते ही, इसे ताइवान न्यूज़ एजेंसी ने हाथोंहाथ लिया और “फ़ोटो ऑफ द डे” घोषित कर दिया। अब ये चित्र पूर्वी विश्व के तमाम चीन-विरोधी स्वरों की एकमत आवाज़ के रूप में उभर रहा है। इसे कहते हैं, किसी राष्ट्र के “पीडब्ल्यूएस” यानी कि “पॉलिटिकल वॉर सिस्टम” (राजनीतिक युद्ध तंत्र) का सिद्ध हो जाना। प्रजा के सौभाग्य से, वो सिद्ध राष्ट्र हमारा अपना देश “भारत” है। ## तो साहिबान, युद्ध से पहले का राजनीतिक युद्ध चीन हार चुका है। मनोवैज्ञानिक युद्ध में उसकी पराजय हो गई है। युद्धक मामलों में संसारभर के माने जाने विशेष

रामराज्य

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इक्कीसवीं सदी की राजनैतिक सभाओं में, “रामराज्य” स्थापना का उद्घोष करने वाले किसी राजनेता से “रामराज्य” के विषय में पूछ लीजिए। जानते हैं क्या होगा? अव्वल तो उनका चापलूस-वर्ग ही आपको आड़े हाथों ले लेगा। तथापि, यदि नेताजी के मन का उपदेशक जाग ही गया, तो प्रत्युत्तर में अपराधमुक्त, भ्रष्टाचारमुक्त, न्यायपूर्ण व सम्यक्-दृष्टि जैसे कुछ भारी-भारी शब्द, बड़ी सतही व्याख्या की साथ मिल जाएँगे। शेष कुछ भी नहीं, कोई चिंतन कोई मनन नहीं। वर्तमान युग में केवल दो राजनेता ऐसे हैं, जो वास्तव में “रामराज्य” की व्याख्या न केवल शब्दों से कर सकते हैं, बल्कि अपने कार्यों से भी लगातार कर प्रकट कर रहे हैं। ये और बात है कि ये दोनों ही जन, असुरों के कारण अपने सम्पूर्ण प्रभाव को प्रकट नहीं कर पा रहे हैं। क्या नाम लेने की आवश्यकता है कि ये दोनों राजनेता कौन-कौन हैं? सत्य ये है कि इन दोनों से इतर कोई राजनेता इस कालखंड में है ही नहीं, जो अपने “घोषणा-पत्र” की भी समग्र व्याख्या कर सके, “रामराज्य” की व्याख्या तो दूर की बात है। वास्तव में, राजनीति करने का अधिकार केवल उसी मनुष्य को होता है, जो “वेदनीति”, “देवनीति” और “ब्रह

रवींद्र जैन और राजकमल

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दोनों ही अपने कालखंड के चुनिंदा सुरबाज़ रहे। अव्वल श्री रामानन्द सागर के धारावाहिक “रामायण” का चुनाव बने, तो दूजे को श्री बीआर चोपड़ा ने “महाभारत” के लिए चुन लिया! विषय भिन्न थे। क्षेत्र भी भिन्न था। किंतु दुनिया तो भिन्न नहीं थी न! सो, भला तुलना से कैसे बच पाते? इन दुनियावी बातों में विष्णु और शिव आपसी तुलना से नहीं बच सके, तो क्षुद्र मनुष्यों के बचाव का उपाय किस विधि हो? कभी कभी प्रतीत होता है कि इस फ़ानी दुनिया में कदाचित् तुलनाएँ ही सबसे ज्यादह लाफ़ानी हैं। देहों को हिमालय गला देते हैं अथवा बहेलिये तीर मार देते हैं या कि सरयू जी की धारा विलीन कर ले जाती है, किंतु शेष रह जातीं हैं तो केवल तुलनाएँ। श्रीराम- श्रीकृष्ण, वाल्मीकि- वेदव्यास, कौरव- पांडव, अर्जुन- कर्ण से लेकर राधा- मीरा, कालिदास- अश्वघोष और वाल्मीकि-तुलसी तक कितने ही नाम लूँ? तुलनाओं की इस पूरी शृंखला में आधुनिकतम युग के रामानन्द सागर- बीआर चोपड़ा तक हर ओर तुलनाएँ व्यापती हैं। समान परिमाण की दो व्याप्तियों को तुला में तौल देना मानवी-स्वभाव का अभिन्न अंग है। और ये गुण सामाजिक तौर पर इतना रचा-बसा है कि तौल-संस्थानों को “काँ

रामकथा में रंधावे

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यों तो मार्शल कौम “रंधावा” के तमाम इतिहास पर सिख-कथाओं का अधिपत्य है। किन्तु “दारासिंह रंधावा” ने रामायण में श्री हनुमान जी का किरदार निभा कर सदा सर्वदा के लिए अमृत्व-सा पा लिया। “रंधावों” के लिखित इतिहास का आरंभ श्री नानक साहब के साथ ही हुआ, जब पहले पातशाह शहर “अमृतसर” व शहर “गुरुदासपुर” के बीच कहीं थे। अब ये मालूमात तो “माझे” की कछारी मट्टी ही दे सकती है कि पातशाह आ रहे थे अथवा जा रहे थे। लिखा-मिटा ये ही तथ्य मिलता है कि वे “अमृतसर” से करीब बाईस मील दूर थे। निकट ही कुछ बस्तीनुमा गाँव भी थे। जैसे कि धरमूचक्क, चन्ननके, भोलेवाला और सैदपुर आदि। वर्तमान में ये तमाम “श्री हरगोविंदपुर” जाने वाली सड़क पर आते है। हाँ तो साहिबान, पातशाह क्या देखते हैं कि एक बांका नौजवान पशुओं को चराने में अपने जवानी झौंक रहा है। पातशाह ने उसके माथे की लकीरों में तमाम “रंधावे” जाटों का सुनहला और रक्तिम भविष्य पढ़ लिया। नाम पूछा तो बताया, “बूढ़ा सिंह रंधावा”। पातशाह मुस्कुरा उठे, ऐसा बांका नौजवान और नाम बूढ़ा सिंह! तूने जी ली अपनी जवानी, चल मेरे साथ चल। -- इस तरह बाबा बूढ़ा रंधावा (बाबा बुड्ढा सिंह) ने तमाम “रंधावों”

रावण

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अंततोगत्वा वो घड़ी आ गई, जब छोटे पर्दे पर पुनश्च “रावण” का प्राकट्य हुआ, हिंदूधर्म साहित्य का सबसे बड़ा खलनायक। और इसके साथ ही आरंभ हुए हैं, रावण-स्तुतिगान। वस्तुतः ये वो घड़ी है, जब आपको निश्चित करना है कि आप छोटे पर्दे पर “रावण” को जीवंत कर देने वाले श्री अरविंद त्रिवेदी जी के कालजयी अभिनय की प्रशंसा करना चाहते हैं अथवा “रावण” को ही श्रेष्ठ बना कह देना चाहते हैं। हमारे कुछ बंधु हैं, जो बरस भर “जय दादा परशुराम” का नारा बुलंद करते हैं, दशहरा आते ही रावण के पक्षधर हो जाते हैं। वे लोग दादा की उपाधि “रावण” को भी दिया करते हैं। ऐसे ही लोग आज टेलीविजन पर “रावण” को देख लहालोट हो रहे हैं। अवश्य ही, खलनायक की योग्यता नायक को अति-योग्य बनने का एक प्रच्छन्न आग्रह होता है। “रावण” यदि वास्तव में एक कमज़ोर राक्षस होता, तो उसका नाश करने के लिए श्रीहरि ही क्यों प्रकटते? किन्तु हृदय विचलित हो गया, जब पढ़ा कि “रावण” के लिए राम को हराना क्या मुश्किल था। हद तो तब हो गई, जब इस पक्ष में अगला तर्क मिला कि “रावण” मायावी था, कुछ भी कर सकता था! बहुत संभव है कि इस पूरे प्रलाप का कारण अज्ञान हो! मग़र अफ़सोस, ऐसा है नही

रामायण रिटर्न्स

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आजकल तमाम प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर, जनमानस के अंतस्तल को प्रतिपल झुलसातीं- झकझोरतीं खबरों के रेगिस्तान के बीच, एक सुकून भरी ख़बर आ रही है कि “रामायण” का पुनः प्रसारण होगा! -- ये कुछ वैसा है, जैसे किसी कर्मठ किन्तु सेवानिवृत्त कर्मचारी “दूरदर्शन” की वापसी। यों तो भारत में सेवानिवृत्त होने की परंपरा साठ बरस पर मानी जाती है, और सेवानिवृत्ति भी बड़े गाजे-बाजे के साथ की जाती हैं। किन्तु उक्त दोनों ही मुआमलों में अपना “दूरदर्शन” बड़ा दुर्भाग्यशाली रहा। अव्वल तो इसकी सेवानिवृत्ति तयशुदा काल से बरसों पहले हो गई। और तिस पर भी पीड़ादायक ये रहा कि पूरा घटनाक्रम बड़ी ख़ामोशी से सम्पन्न हो गया। अभी बीते ही बरस दूरदर्शन ने साठ बरस पूरे किए हैं, कितनों को याद है? बहरहाल, बहरकैफ़। बहुत संभव है कि “दूरदर्शन” की जयंती हमें स्मृत भी हो। किन्तु हम में से कितनों के पास उस स्मृति का रेखाचित्र है, जब धारावाहिक “रामायण” ने अपने पच्चीस बरस पूरे किए। ये सन् 2012 की एक भूली-बिसरी घटना रही होगी। वास्तव में, इन सब वाकयों का आरंभ एक ऐतिहासिक दिन 25 जनवरी से हुआ था, सन् 1987 की तरुणाई का दिन। घोषणा हुई कि हफ्ते मे

उत्तरकांड

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इधर बीते दिनों, “उत्तरकाण्ड” के रचनाकाल पर सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा एक सार्थक विमर्श पुनश्च जीवित हो उठा है! और इस विमर्श का ज्वलन्त रहना आवश्यक भी था! चूँकि जब ये निष्कर्ष प्राप्त होता है कि “उत्तरकाण्ड” के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि नहीं हैं, तब श्रीराम पर लगे तमाम मिथ्या आरोप स्वतः नष्ट हो जाते हैं। उक्त दोनों विषय एकदूजे से इस तरह लिपटे हुए हैं कि किसी एक को लेकर चलना कठिन है। किसी एक की विवेचना की जाए, तो दूजा विषय स्वतः ही खुलने लगता है। यानी कि “उत्तरकाण्ड” के रचनाकाल की विवेचना, श्रीराम पर लगे तमाम आरोपों की कलई खोल देती है! पहले तर्क के रूप में काण्डों, सर्गों और श्लोकों की सङ्ख्या का तथ्य पकड़ा जाए तो “रामायण” में स्वयम् वाल्मीकि कहते हैं कि ये कथा छः काण्ड, पाँच सौ सर्ग और चौबीस हज़ार श्लोकों में विभाजित है। किन्तु वर्तमान स्थिति क्या है? -- छः सौ पैंतालीस सर्ग हैं, पच्चीस हजार श्लोक हैं और सात काण्ड हैं! भला ऐसा क्यों? चूँकि संपूर्ण उत्तरकाण्ड नवीन प्रकल्प है। अब प्रश्न उठता है कि नया जोड़ा गया काण्ड “उत्तरकाण्ड” ही है, ये आप कैसे कह सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये आरोप भावुकत

गङ्गा-जमुनी तहज़ीब

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आलेख को आरंभ करने से पूर्व, मैं उस धूर्त मानुष की बुद्धि को नमन करता हूँ, जिसने इस शब्दबँध को ईज़ाद किया। आहा! कैसा मोहपाश-सा शब्दबँध है, हिन्दू धार्मिक महत्त्व वाली दो प्रमुख उत्तर भारतीय नदियों के नाम का प्रयोग कर अरबी टेक्स्चर में निर्मित। गङ्गा-यमुना के इस दोआब की भोली-भाली विशाल हृदय की आबादी को छलने का जितना कार्य इस शब्दबँध ने किया है, उतना तो पूरी पूरी किताबें न कर सकें। वाकई! ये किसी शब्दबँध के सामर्थ्य की अतिरञ्जना है, कि उसके पक्ष में एक भी (नॉट अ सिंगल वन) तर्कबीज उपलब्ध नहीं और वो विषैले दरख़्त की भाँति फ़ैल गया। जबकि पड़ताल की जावै तो कलई खुलती है कि इस्लामिक आक्रान्ताओं ने गङ्गा-यमुना के दोआब का क्या हश्र किया था। जबकि होना तो ये चाहिए था कि यदि इस्लामिक आक्रान्ता वाकई में गङ्गा-यमुना के दोआब को संस्कृतियों के मिलन का क्रीड़ा-आँगन मानते, तो वे हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों को न तोड़ डालते। किन्तु ऐसा कुछ था ही नहीं! गङ्गा-यमुना का मिलन प्रयाग में होता है। उस पवित्र शहर को भी इस्लामिक आक्रान्ताओं ने नहीं बख्शा था। और आज बात करते हैं, गङ्गा-जमुनी तहज़ीब की? प्रयाग की मुख्य मस्जिद को

आइ वॉण्ट माय सिविलाइजेशन बैक!

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मन्दिर-मस्ज़िद पर छिड़ी बहस में, एक विमर्श इस बात पर भी हो, कि वास्तव में आक्रान्ताओं ने किया क्या? अव्वल तो यही जान लेना बड़ा आवश्यक है कि आक्रान्ताओं की सुगबुगाहट का आरम्भ कब होता है! मैं कोई वीररस का कवि नहीं, जो किसी की व्यक्तिगत वीरता को परिभाषित करने हेतु इस्लामिक आक्रान्ताओं के कालखंड को बारहवीं शताब्दी की ओर खिसकाता चलूँ। मैं स्पष्टरूप से इस पक्ष में हूँ कि इस्लामिक आक्रान्ताओं ने आठवीं शताब्दी के आरम्भ में ही भारतभूमि पर दस्तक दे डाली थी। वस्तुतः आठवीं से ग्यारहवीं सदी का भारत, समूची पृथ्वी का सर्वाधिक धनधान्यपूर्ण भूभाग था। क्या “धर्म” और क्या “विज्ञान”, दोनों में श्रेष्ठतम। “कला”, “साहित्य” और “लालित्य” के तो कहने ही क्या! जहाँ “वास्तुकला” में मेरी सभ्यता का सामना केवल “फ्रांसीसी” गिरिजाघरों की “गॉथिक-आर्ट” कर सकती है। वहीं “मूर्तिकला” में क्लासिकल ग्रीकों के द्वारा बनाई गई मूर्तियाँ ही इस स्तर को पा सकी हैं कि उनकी तुलना भारतीय मूर्तिकला से की जावै। किंतु एक रोज़ इस्लामिक आक्रान्ता आ धमके, पॉइंट नोट किया जाए- इस्लामिक आक्रान्ता! और फिर इस्लामिक जुनून की आग में तत्कालीन विश्व की

केशव पाराशरन

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श्री केशव पाराशरन इस सदी के सबसे बड़े राजनीतिक आश्चर्य हैं! सबसे बड़े नहीं तो कमसकम उन्हें टॉप थ्री में शामिल अवश्य ही किया जाना चाहिए। उनका जन्म कब हुआ? ये तो महज एक संख्या है। महत्त्व इस बात का है कि जन्म कहाँ हुआ? कैसी पृष्ठभूमि में हुआ? उनका जन्म तमिलभूमि के श्रीरंगम में हुआ था। वे रामासामी पेरियार की शीर्षतम प्रसिद्धि के युग में पले बढ़े हैं। एक ऐसा युग जब तमाम जेनेटिक दावों की उपेक्षा करते हुए दक्षिण भारत अपनी नई अनार्य पहचान बनाने में जुटा था। चूंकि रामासामी पेरियार ने दक्षिण को उस अपमान के प्रतिशोध आंच में झुलसा दिया था, जो पच्चीस वर्ष की अवस्था में काशी-यात्रा के दौरान व्यक्तिगत रूप से केवल उन्हीं का हुआ था। न कोई उस अपमान का गवाह था और न कोई साक्ष्य! उत्तर ने कभी नहीं कहा था कि दक्षिण हमारा नहीं है। बल्कि दक्षिण ने स्वायत्त पहचान का झंडा बुलंद किया था, जोकि आज तलक भी सुगबुगा रहा है। श्री पाराशरन का बालपन, उनकी युवावस्था व उनकी प्रौढ़ता तक भी, दक्षिण भारत को उत्तर भारत से उस तरह वैचारिक तकसीम होते देख बीती है। जहाँ पूरा दक्षिण भारत एक व्यक्ति के व्यक्तिगत अपमान का प्रतिशोध पूरे भा

रञ्जन गोगोई

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यों तो माननीय उच्चतम न्यायालय के विचार हिन्दू राष्ट्रवादियों से कम ही मेल खाते हैं। मगर इस मामले में श्री रञ्जन गोगोई का अलग “स्वैग” है। उन्होंने अपने कैरियर में कुछ निर्णय बड़े शानदार किए हैं। जैसे कि-- १) ओबीसी की जातिसूची को छोटा किया। २) पूर्वोत्तर राज्यों में घुसपैठियों की पहचान हेतु राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाना। ३) जेएनयू के कन्हैया कुमार मामले में एसआईटी का गठन। ४) कोलकाता के एक जस्टिस को छः मास के कारावास पर भेजा। ५) चुनावी उम्मीदवारों को अपना संपत्ति विवरण देने को बाध्य करने का प्रावधान। ६) एक आधारकार्ड पर आरक्षण के लाभ को केवल एक ही राज्य में सीमित करना। ७) सुप्रसिद्ध सौम्या मर्डर मिस्ट्री पर ब्लॉग लिखने वाले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू को स्वतः संज्ञान लेते हुए कोर्ट में तलब करना। ## आज यदि भारत के चीफ जस्टिस मेरे सम्मुख होते तो उन्हें गले लगाकर कहता : “सर, यू आर द जस्टिस ऑफ़ दिस सेंचुरी!” कल से पहले, मुझे लगता था कि सत्तर दशक में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के “हाकिम” रहे जस्टिस जगमोहन सिन्हा ही इस दुनिया के बेहतरीन जस्टिस हैं, इनके जितना क़द किसी का नहीं। किन्तु मैं गलत था, और इसका