रञ्जन गोगोई


यों तो माननीय उच्चतम न्यायालय के विचार हिन्दू राष्ट्रवादियों से कम ही मेल खाते हैं। मगर इस मामले में श्री रञ्जन गोगोई का अलग “स्वैग” है। उन्होंने अपने कैरियर में कुछ निर्णय बड़े शानदार किए हैं। जैसे कि--

१) ओबीसी की जातिसूची को छोटा किया।
२) पूर्वोत्तर राज्यों में घुसपैठियों की पहचान हेतु राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाना।
३) जेएनयू के कन्हैया कुमार मामले में एसआईटी का गठन।
४) कोलकाता के एक जस्टिस को छः मास के कारावास पर भेजा।
५) चुनावी उम्मीदवारों को अपना संपत्ति विवरण देने को बाध्य करने का प्रावधान।
६) एक आधारकार्ड पर आरक्षण के लाभ को केवल एक ही राज्य में सीमित करना।
७) सुप्रसिद्ध सौम्या मर्डर मिस्ट्री पर ब्लॉग लिखने वाले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू को स्वतः संज्ञान लेते हुए कोर्ट में तलब करना।

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आज यदि भारत के चीफ जस्टिस मेरे सम्मुख होते तो उन्हें गले लगाकर कहता :

“सर, यू आर द जस्टिस ऑफ़ दिस सेंचुरी!”

कल से पहले, मुझे लगता था कि सत्तर दशक में इलाहाबाद उच्च न्यायलय के “हाकिम” रहे जस्टिस जगमोहन सिन्हा ही इस दुनिया के बेहतरीन जस्टिस हैं, इनके जितना क़द किसी का नहीं।

किन्तु मैं गलत था, और इसका अफ़सोस है मुझे!

आज बरसों के बाद भारतीय मीडिया की सो कॉल्ड ब्रेकिंग न्यूज़ को गौर से देखा पढ़ा, तो जाना कि वाकई श्री रञ्जन गोगोई कितने महान आदमी हैं। निर्णय का सारांश पढ़े जाने की रस्मो अदायगी के बाद, शायद ही किसी एंकर या रिपोर्ट ने उनका नाम लिया हो!

शायद आपको मालूम न हो, मगर एक तथ्य ये भी है कि जब कोई जस्टिस ऐसे मामले में निर्णय सुनाने जा रहा हो, जिसका कि राजनीतिक महत्त्व हो, तो उसकी अपनी ज़िन्दगी सैकड़ों ख़ुफ़िया निगाहों के तले आ जाती है।

-- इस विषय पर लेख में बात होगी!

अनडाउटफुली, श्री गोगोई ने उन सभी कठिनाइयों को डील किया होगा! मग़र आश्चर्य ये है कि मीडिया ने उनकी प्रशस्ति में एक अनुच्छेद तक न कहा।

भले श्री गोगोई इतना महान कार्य कर बेहिचक नेपथ्य में चले गए हों, मगर अंधियारों की ओर रुख़ करने से पहले उन्होंने हिन्दू जनमानस के ऊपर अपनी न्यायबुद्धि की ऐसी छाप छोड़ी है, जिसे धूमिल होने में कमसकम साढ़े चार दशक लगेंगे।

साढ़े चार दशक ही क्यों? चूँकि इतिहास अपने आप को दुहराता है!

आज से साढ़े चार दशक पहले, भारतीय न्यायिका से एक नाम उठा था : जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा। साढ़े चार दशक पश्चात् एक और नाम उठा है : चीफ़ जस्टिस रञ्जन गोगोई।

इसी लीक पर तीसरा नाम उठने में कमसकम साढ़े चार दशक तो लगेंगे ही न!

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ये सन् पचहत्तर की बात है। उनदिनों देश में श्रीमती इंदिरा गांधी पूर्ण बहुमत वाली कांग्रेसी सरकार चला रही थीं। मगर सन् इकहत्तर में मिली पांचवी लोकसभा की इस जीत में एक करारा काँटा भी फंसा हुआ था!

श्रीमती गांधी ने पूर्वांचल (उप्र) की रायबरेली सीट पर विजय हासिल की थी। किन्तु इस विजय के पश्चात् उनके चुनावी प्रतिद्वंदी राजनारायण ने उनपर मुकदमा दायर कर दिया, कि उन्होंने उस पूरे चुनाव में भ्रष्टाचार किया है।

राजनारायण की सरकारी मशीनरी में इतनी पहुंच थी कि उन्होंने जो भ्रष्टाचार के मामले खोजे थे, उन्हें “बाल की खाल निकालने” की श्रेणी में अभिहित किया जा सकता है।

पहला आरोप ये था कि पीएमओ के एक अधिकारी ने श्रीमती गांधी के लिए प्रचार किया। उसने ये प्रचार सात जनवरी सन् इकहत्तर में शुरू किया और अपना लिखित इस्तीफ़ा तेरह जनवरी को दिया, जिसे पच्चीस जनवरी को मंजूरी मिली।

जाहिर है, यशपाल ने अपनी राजनीतिक निष्ठाओं के लिए सरकारी मशीनरी का लाभ लिया!

दूसरा आरोप था कि श्रीमती गांधी ने अपने लिए मंच और लाउडस्पीकर की व्यवस्था कांग्रेसियों से नहीं करवाई थी। चूंकि कार्यकर्ताओं को तो मोरारजी देसाई नया “फ्रंट” बनाकर ले उड़े थे।

सो, सरकारी अधिकारी ही इन चुनावी व्यवस्थाओं को करते थे!

उक्त दोनों आरोप की समीक्षा में सरकारी कागज़ी जांचों को चार बरस से ज्यादा का समय लग गया। मगर राजनारायण की सूचनाएँ ऐसी पक्की थीं कि उनके दावे एक छटाँकभर भी असत्य न मिले।

जस्टिस सिन्हा निर्णय ले चुके थे। बस देर थी तो उसे प्रकाशित करने की! यदि फैसला सरकार के खिलाफ जाता, तो श्रीमती गांधी अपदस्थ होना पड़ता।

फैसला टाइप हो ही रहा था कि ठीक उसी समय सरकारी तंत्र को उस निर्णय में दिलचस्पी हो गई। अब जस्टिस सिन्हा और उनके स्टेनोग्राफर की ख़ुफ़िया रेकी की जाने लगी।

उत्तर प्रदेश के तमाम कांग्रेसी सांसद जस्टिस सिन्हा के घर पांच पांच लाख की पेशकश भिजवाने लगे। यहाँ तक कि सरकार ने उन्हें भारत का चीफ जस्टिस हो जाने का ऑफर भी दिया! मगर सिन्हा तो सिन्हा थे।

वे प्रसन्न तो नहीं ही हुए, बल्कि खीज भी गए!

और उन्होंने घोषणा की, कि अब पीठ श्रीमती गांधी की आगामी विदेश यात्रा का लिहाज नहीं करेगा। हालांकि आठ जून को हो रहे गुजरात चुनाव पर निर्णय का कुप्रभाव न हो, सो निर्णय बारह जून सन् पचहत्तर को ही आएगा!

सरकारी तंत्र में खलबली मच गई। इधर जस्टिस सिन्हा के स्टेनो अपनी पत्नी के साथ फरार हो गए। बेहतर से बेहतरीन ख़ुफ़िया एजेंट्स भी, उन्हें खोज न सके। अंततोगत्वा, बारह जून आ गया।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कमरा नंबर चौबीस से देश को सन्देश दिया गया कि श्रीमती गांधी को अपदस्थ किया जाता है!

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इस निर्णय के क्या परिणाम हुए, समूचा देश जानता है। श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र को जीवनदान देते हुए इमरजेंसी लागू कर दी थी। (ये कथा फिर कभी!)

और आज सन् दो हज़ार उन्नीस के नवम्बर में, श्री गोगोई ने उसी लीक पर चलते हुए सत्य का पक्ष लिया है। उन्होंने चिंता ही नहीं की, कि राष्ट्र की प्रतिक्रिया कैसी होगी, माहौल कैसा होगा। कोई चिंता नहीं की।

श्री गोगोई का ट्रैक रिकॉर्ड भी ऐसा ही रहा है!

वो आदमी बेझिझक होकर ऐसे फैसले करता है, मानो टॉस उछाला जा रहा हो। ज़िन्दगी में कानूनी पढाई को चुनने में भी उन्होंने टॉस उछाला था। ये टॉस रञ्जन और अञ्जन के बीच हुआ था।

जिसने टॉस जीतना था, उसे आर्मी ज्वाइन करनी थी। और हारने वाले को कानून की पढ़ाई चुननी थी। इसी टॉस की परिणीति से ही, श्री अञ्जन गोगोई एयर मार्शल ऑफ इंडिया हुए और श्री रञ्जन गोगोई चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया!

वस्तुतः श्री रञ्जन गोगोई बाजीगर हैं, वास्तविक बाजीगर! चूंकि अक़्सर देखने सुनने को मिलता है न, कि हार कर जीतने वाला ही बाजीगर होता है। श्री गोगोई टॉस हारे थे, भारतीय सेना ज्वाइन नहीं कर सके।

किन्तु आज उन्होंने सत्य का पक्ष लेकर, स्वयं को सदा सदा के लिए चिर-विजेता बना लिया है!

इति।


Written By : Yogi Anurag
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