रामकथा का निमंत्रण
“रामकथा” को समय-रेखा माना जाए तो “रामायण” उसका आरंभिक बिंदु है, और “तुलसी” हैं आखिरी बिंदु!
इस समय-रेखा पर, और भी बहुत से “रामकथा” ग्रन्थों की व्याप्ति है। किन्तु “वाल्मीकि” की “रामायण” और “तुलसी” के “मानस” का कोई सानी नहीं।
“योगवासिष्ठ”, “आध्यात्म-रामायण”, “आनंद-रामायण”, “अद्भुत-रामायण”, “मंत्र-रामायण” और “भुशुण्डि-रामायण” जैसे “रामकथा” काव्य, “वाल्मीकि” और “तुलसी” की कृतियों के मध्य की प्रत्यक्ष कड़ियाँ हैं।
इन्हीं कड़ियों में, अन्य भाषाओं की बात करें तो, “प्राकृत” में “विमलसूरि” का “पउमचरिउ” और “रविषेण” का “पद्मचरित” अव्वल है। “तमिल” में “कंबन-रामायण”, “बांग्ला” में “कृत्तिवासीय-रामायण” भी इसी कड़ी में अभिहित होंगी।
और तत्पश्चात् आता है, “तुलसी” का “मानस”!
उक्त सभी के क्रमशः अध्ययन से जाना जा सकता है कि किस तरह “वाल्मीकि” की “रामकथा”, “तुलसी” के “मानस” से भिन्न है और उस भिन्नता के आधार क्या हैं।
इस भिन्नता पर न केवल प्रत्यक्ष कड़ियों ने, बल्कि अप्रत्यक्ष कड़ियों ने बहुधा प्रभाव डाले हैं।
इस अप्रत्यक्ष सूची का आरंभ, “महाभारत” में उल्लिखित “भार्गव च्यवन” द्वार रचित “रामकथा” से होता है। अन्य मुनियों की रामायण में “नारद” की “संवृत-रामायण”, “अगस्त्य-रामायण”, “लोमश-रामायण”, “सुतीक्ष्ण” की “मंजुल-रामायण”, “अत्रि” की “सौपद्य-रामायण”, “शरभंग” की “सौहार्द-रामायण” आदि सम्मिलित हैं।
इनके साथ, और भी अनेक अज्ञातनामा प्रणेताओं की रामकथाओं ने “तुलसी” के मानस पर अप्रत्यक्ष प्रभाव डाल कर उसे “वाल्मीकि” की “रामायण” से भिन्न किया है।
इनके अतिरिक्त और भी कवि महाकवि हुए हैं, जिन्होंने अपनी महाकाव्यात्मक रचनाओं से समाज में रामकथा के प्रचार प्रसार में महती भूमिका का निर्वहन किया है।
यथा, “कालिदास” का “रघुवंश”, “भास” के “प्रतिमानाटक” और “अभिषेकनाटक” जैसे रूपक, “भवभूति” का “उत्तररामचरित” आदि आदि इत्यादि।
जितना खोजा जाए, “रामकथा” साहित्य उतना ही अधिक प्राप्त होता जाएगा। चूँकि हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता!
किन्तु फिर भी, यदि “तुलसी” के “मानस” को आलोचनात्मक रूप से नहीं, समालोचनात्मक रूप से भी नहीं और न ही समीक्षात्मक रूप से, बल्कि व्याख्यात्मक तुलना के लिए तौलना है, तो “वाल्मीकि-रामायण” से श्रेष्ठ अन्य कोई ग्रन्थ नहीं।
अस्तु, इस साप्ताहिक लेख श्रंखला में, “मानस” की तुलना का आधार श्री “वाल्मीकि” की “रामायण” ही होगी। इस लेख में आगे और आगे के सभी लेखों में, जहाँ जहाँ केवल “रामायण” शब्द हो, वहां वहां इसका तात्पर्य “वाल्मीकि-रामायण” से लिया जावे!
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तुलना आधार के निष्कर्ष पर पहुंचने के उपरान्त, प्रश्न उठता है कि “रामायण” का कौनसा संस्करण आधार बनेगा? इतने पाठभेद के बीच किसे मूल माना जाए?
“रामायण” के रचनाकाल में प्रिंटिंग प्रेस नहीं थीं। “रामायण” का प्रचार जाने कितनी शताब्दियों और सहस्राब्दियों तक वाचिक, मौखिक और भोजपात्रिक पांडुलिपियों के रूप में रहा। सो, अलग अलग महाजनपदों में इसके अलग अलग पाठ की प्रथाओं ने नीवें जमा लीं।
ये सभी मूलतः तो महर्षि “वाल्मीकि” की ही रचनाएं थीं किन्तु जो सूत और कुशलीव इसका गायन करते थे, यत्किंचित वे अपने “वेरिएशन” भी लगाने लगे थे।
अस्तु, प्रिंटिंग प्रेस के भारत पहुँचने तक, “रामायण” मूलतः चार पाठभेदों में परिवर्तित हो चुकी थी।
१) पहला संस्करण “बांग्ला” में आया। इतालवी विद्वान् जी० गोरेशियो ने अठारह सौ तियालीस से लेकर सरसठ तक, कई खण्डों में इसका प्रकाशन करवाया। उन्होंने ही इसके संस्कृत श्लोकों का अनुवाद “इतालवी” भाषा में किया। इसी संस्करण से फ्रेंच और अंग्रेजी अनुवाद भी निर्मित हुए।
२) दूसरा संस्करण “देवनागरी” संस्करण कहलाता है। इसे “बम्बई” संस्करण भी कहते हैं। इसका प्रकाशन श्री के० पी० परब के “निर्णयसागर” नामक प्रेस द्वार सन् उन्नीस सौ दो में किया गया। कालान्तर में, भाईजी ने इसे “गोरखपुर” से छापा और “बनारस” के “चौखम्बा” से भी यही संस्करण प्रकाशित होता है।
३) तीसरा संस्करण “काश्मीर” संस्करण है। इसे “पश्चिमोत्तर” संस्करण भी कहा जाता है। ये “लाहौर” के डी० ए० वी० कॉलेज के अनुसंधान-विभाग से सन् उन्नीस सौ तेइस में आया। इसके श्लोक अनुवाद वस्तुतः “बांग्ला” संस्करण पर हुई कटक टीका हैं।
४) और आखिरी संस्करण है, “दाक्षिणात्य”। ये “कुम्भकोणम्” (मद्रास) में स्थिति “मध्य-विलास” बुकडिपो से आया है। सन् थी, उन्नीस सौ उनतीस। इसका स्वरूप “बम्बई” संस्करण से अधिक भिन्न नहीं।
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उक्त चार पाठभेद ही मूल पाठभेद हैं। भिन्नता इतनी अधिक है कि श्री “वाल्मीकि” के निकटतम संस्करण का निर्णय करना अत्यंत कठिन हो जाता है।
“हरिवंश-पुराण” के दो सौ छत्तीसवें अध्याय में जो “रामकथा” के संकेत हैं, वे “बांग्ला” संस्करण के अधिक निकट हैं। वहीं आठवीं नौवीं सदी के ग्रन्थों में उद्धृत “रामायण”, “बम्बई” पाठभेद के निकट है।
“क्षेमेन्द्र” की “रामायण-मंजरी” से अधिक निकट “काश्मीर” पाठभेद है तो “भोज” का “रामायणचम्पू”, “बम्बई” पर आधारित लगता है।
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चूँकि श्री “तुलसी” ने “हिन्दी” की बोली “अवधी” में रचना की है। सो, उनके “मानस” की तुलना का आधार “देवनागरी” संस्करण ही होगा।
अभी की वस्तु-स्थिति में, कांड-अनुसार तुलना का विचार है। “वाल्मीकि” और “तुलसी” के बीच किसी महत्त्वपूर्ण सर्ग में हुए विस्तृत भेद पर, सर्ग-अनुसार विवेचना भी की जाएगी।
ये लेख श्रंखला हर मंगलवार रात्रि दस बजे आपके हाथों में होगी। आप सभी इस “रामकथा” में आमंत्रित हैं। आपके सुझाव, प्रश्न और ऐसे विचार जो इस तुलना को और भी समृद्ध करें, ससम्मान आमंत्रित हैं।
इति नमस्कारान्ते।
Written By : Yogi Anurag
Shatpath (Telegram)
जय जय जय श्री राम 🔴🚩🚩🚩🚩
ReplyDeleteआधुनिक अयोध्या नगरी का ऐतिहासिक महत्व और रामचन्द्र जी के विराट स्वरूप का वर्णन होता तो और अच्छा लगता।
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ReplyDeleteशशांक जी : बड़ी जल्दबाजी में हैं, और सबकुछ पाना भी चाहते हैं। विचित्र स्थिति है। पहले सभी लेख देख लीजिए, फिर कुछ कहिएगा, तो और अच्छा लगेगा! :)
ReplyDeleteजय जय श्री राम
ReplyDeleteजय श्रीराम
ReplyDeleteरामायण पर मतभेद के निराकरण में ये लेखों की श्रृंखला प्रकाश स्तंभ का कार्य करेगी। जय जय श्री राम ����
ReplyDeleteबहुत अच्छा लग रहा है , आगे के आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी ।
ReplyDeleteAb yha pr padhna jada achha lg rha h.
ReplyDeleteराम के बारे में इतना सुंदर वर्णन आप जैसा कोई योगी ही कर सकता है।
ReplyDeleteमैने यहां योगी को विद्वान माना है।
बहुत सुंदर जानकारी से भरपूर लेख। गहन आभार आपका। ईश्वरीय ज्ञान से परिपूर्ण हैं आप, अतुल्य मेधाशक्ति। जय सियाराम
ReplyDeleteअहा...सुंदर....👌💐
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