रवींद्र जैन और राजकमल



दोनों ही अपने कालखंड के चुनिंदा सुरबाज़ रहे। अव्वल श्री रामानन्द सागर के धारावाहिक “रामायण” का चुनाव बने, तो दूजे को श्री बीआर चोपड़ा ने “महाभारत” के लिए चुन लिया!

विषय भिन्न थे। क्षेत्र भी भिन्न था। किंतु दुनिया तो भिन्न नहीं थी न! सो, भला तुलना से कैसे बच पाते? इन दुनियावी बातों में विष्णु और शिव आपसी तुलना से नहीं बच सके, तो क्षुद्र मनुष्यों के बचाव का उपाय किस विधि हो?

कभी कभी प्रतीत होता है कि इस फ़ानी दुनिया में कदाचित् तुलनाएँ ही सबसे ज्यादह लाफ़ानी हैं। देहों को हिमालय गला देते हैं अथवा बहेलिये तीर मार देते हैं या कि सरयू जी की धारा विलीन कर ले जाती है, किंतु शेष रह जातीं हैं तो केवल तुलनाएँ।

श्रीराम- श्रीकृष्ण, वाल्मीकि- वेदव्यास, कौरव- पांडव, अर्जुन- कर्ण से लेकर राधा- मीरा, कालिदास- अश्वघोष और वाल्मीकि-तुलसी तक कितने ही नाम लूँ? तुलनाओं की इस पूरी शृंखला में आधुनिकतम युग के रामानन्द सागर- बीआर चोपड़ा तक हर ओर तुलनाएँ व्यापती हैं।

समान परिमाण की दो व्याप्तियों को तुला में तौल देना मानवी-स्वभाव का अभिन्न अंग है। और ये गुण सामाजिक तौर पर इतना रचा-बसा है कि तौल-संस्थानों को “काँटे” के बजाए “धर्मकाँटा” कहा जाता है। तामसिक और राजसिक अग्नि को मात्र एक “स्वाहा” की आहुति पूजनीय बना देती है। “धर्म” विषय ही ऐसा है कि जब ये साथ जुड़ता है, तो प्रत्येक व्याप्ति की विशुद्धि का पूर्ण उत्तरदायित्व वहन करता है।

ठीक वैसे ही, “धर्म” ने “रवींद्र जैन” और “राजकमल” का ऐसा साथ बांधा कि दोनों राजसिक सुरबाज़ों से ऊपर उठ कर सात्विक संगीतज्ञ हो गए। ऐसे सात्विक संगीतकार कि उनकी विशुद्ध पेशेवर प्रतिस्पर्धा का उल्लेख ऐतिहासिक महानुभावों के साथ किया जाए।

ये दोनों संगीत के “बुद्ध” और “महावीर” हैं, एकल चेतना के दो प्रतिबिम्ब, एक ही आत्मा के दो मनोरथ। एक “रामायण” से उभरा, दूजा “महाभारत” से।

एक की प्रायोगिक भूमि कोमल सुर हुआ करते थे, राग यमन- पूरबी और माड़वा के विशाल दरख़्तों तले बैठ कर रचा करता था, तो दूजा सितार और सारंगी के निष्ठुर सुरों को साथ राग देस- भैरवी को अपनी उँगलियों का आश्रय देता था।

ज़ाहिर है, एक कोमल हारमोनियम का विशेषज्ञ, तो दूसरा कठोर तबला का निष्णात! कहीं लिखा कहा सुना था कि “राजकमल” को तबला के क्षेत्र में राजकीय सम्मान प्राप्त था।

हालाँकि ऐसा कोई आधिकारिक सम्मान “रवींद्र जैन” को प्राप्त न था। बल्कि वे तो “अंधाधुन” जैसी कोरी कल्पना के मूर्तरूप थे, जन्मना अंधत्व से शापित। भले उनकी नेत्रहीनता ने उन्हें तमाम दुनियावी दृश्यों से दूर कर दिया था, किंतु इसी गुणावगुण ने धुनों से क़ुरबतों का तोहफ़ा भी दिया था।

उनके सफल गीतकार होने के पीछे भी एक नेत्रहीन बालक की एकाग्रता का परचम है। बालपन में उनके बड़े भाई श्री डीके जैन उन्हें तमाम साहित्यिक रचनाएँ पढ़कर सुनाया करते थे। साहित्यिकता ने हृदय में ऐसा कोना पकड़ा कि उनकी रचनाएँ काव्यात्मक अलंकरणों से अधिक भावुकता को महत्त्व देती हुई मालूम होती हैं।

इससे इतर “राजकमल” के गीत-संगीत में पारिवारिकता का रंग दिखाई पड़ता है। दोहे, कजरी और होरी जैसे लोक-संगीत की धुनें सुनाई पड़ती हैं। मग़र कहीं कहीं एक कोफ़्त भी होती है कि जनाब “राजकमल” अपनी पहली हिट फ़िल्म “सावन को आने दो” के संगीत के दायरे से बाहर क्यों नहीं आ पाते?

जैसे कि धारवाहिक “महाभारत” में इंद्रसभा के दृश्यों को ही उठा लिया जाए, तो मालूम होता है कि दृश्य का गंधर्व-आलाप कहीं सुना-सुना-सा लगता है। पुनश्च ग़ौर किया तो राग दरबारी कन्हडा के आरंभ और राग जोग के अंत की अनुभूति हुई।

ठीक इसी धुन के साथ “राजकमल” ने अतिक्रमण किया है। इसे इतनी ज्यादह बार प्रयोग किया है कि अब तो इसे नीम बेहोशी में पहचाना जा सकता है। इसका मूल गीत “सावन को आने दो” फ़िल्म का “पत्थर से शीशा टकराके” है। कभी सुनकर देखिएगा, नेत्र और कान दोनों का आनंद है।

नेत्रों का आनंद यों कि “रवींद्र जैन” के श्रीराम “अरुण गोविल” इसे गाते हुए नज़र आएँगे!

बहरहाल, बहरकैफ़।

भले “राजमकल” अपनी ही इस घेराबंदी के कारण “रवींद्र जैन” जैसे प्रयोगधर्मी के सामने उन्नीस-बीस रह जाते हों, मग़र कुछ खोजें ऐसी भी हैं जो उनकी अनुपस्थिति में हो ही न पातीं।

इन खोजों में अव्वल ये कि सूरदास के पदों को राग देस में निबद्ध सितार और सारंगी पर गाया जा सकता है, दुनिया ने पहली बार जाना। दूसरी बड़ी खोज ये रही कि यहीं इसी धरती पर एक मधुर कंठ “अलका याज्ञनिक” के नाम से जन्मा है।

ख़ैर, जो भी हो, जैसा भी हो, कहना न होगा कि धार्मिक संगीत के लिहाज़ से देखा जाए तो “रवींद्र जैन” भारी पड़ जाते हैं। तोलाभर सही या कि कमसकम माशा ही भर सही, किंतु भारी तो हैं।

“रामायण” की स्वर-लहरियाँ रामनाम का एंथम बन गईं थीं, जबकि “रामकथा” बड़ी एकदिशीय है, वहाँ नाटकीयता का न तो ज़्यादा महत्त्व था और न ही प्रयोगधर्मिता का स्कोप, फिर भी, जैन साहब के प्रयोग बड़े सहज लगते हैं।

“रामायण” का शीर्षक गीत हो या अंत का लव-कुश गीत “हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की” हो, ग़ज़ब की निरंतरता संगीतकार ने निर्मित की है। “ओ मइया तेने का ठानी मन में”, “मेरे लखन दुलारे बोल कछू बोल”, “ये अंतिम मिलन हमारा है” या कि “यही रात अंतिम यही रात भारी” जैसे गीत बरबस ही याद रह जाते हैं।

“रामभक्त ले चला रे राम की निशानी” - ये गीत तो अपने आप में मास्टरपीस है। इसे धार्मिक जुमलों का बृहत्तर संग्रह और पंचलाइंस संग्रहालय मानें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

वहीं “राजकमल” की ज़्यादातर “महाभारत” कृतियाँ लोकसंगीत पर आधारित रहीं। जैसे कि सूरदास के कुछ अष्टछाप पदों का बढ़िया संकलन मिला, एक एक पद को कई कई दिन लगातार सुने जाने योग्य।

“मइया मोरी मैं नहीं माखन खायौ”, “दाऊ बहुत खिजायौ” और “संदेशों देवकी सौं कहियो” जैसे तीनों के तीनों पद अपने आप में मिसाल क़ायम कर जाते हैं। कभी जो सूरदास के पदों पर पृथक् से लिखा, तो इस विषय पर विस्तार से चर्चा होगी। फ़िलहाल इतना ही!

और अन्तत: “राजकमल” के महाभारत गीतों में शीर्षक गीत के अलावा एक गीत “सबसे ऊँची प्रेम सगाई” भी कई हफ़्तों पर मन पर छाया रहता है। जबकि “महाभारत” बहुदिशीय गाथा है, नाटकीयता और प्रयोगधर्मिता का बहुत बड़ा स्कोप है, किंतु कहना न होगा कि “राजकमल” इसे पूरा नहीं भुना सके।

जब श्री रामानंद सागर “महाभारत” का अपना वर्शन “जय श्री कृष्णा” लेकर आए तो इस महाकाव्य के संगीत पर काम करने का अवसर “रवींद्र जैन” को भी मिला। हालाँकि, तब तक “रवींद्र जैन” भी तमाम धार्मिक धारावाहिकों की पहली पसंद होने के कारण चुक गए थे।

ज़ाहिर है, हर मनुष्य की अपनी एक सीमा है!

किंतु गीत-संगीत के धार्मिक प्रयोग की जिस शैली का विकास “रवींद्र जैन” और “राजकमल” ने बिना कोई भेंट किए साथ मिलकर कर लिया था, वो शोध का विषय है। वो कभी चुकेगा नहीं। वो कल्पवृक्ष है, कभी पतझड़ की चपेट में नहीं आएगा। वो अनवरत है, सदा रहेगा।

ये भी किसी संगीत से कम दिलचस्प नहीं कि वे दोनों शायद कभी नहीं मिले!

समकालीन होकर भी समूचा कालखंड इनकी एक भेंट के लिए तरस गया होगा। बहुत संभव है कि कभी मिले भी हों, तो वो मुलाक़ात निहायत पेशेवर और सर्वथा सार्वजनिक रही होगी, व्यक्तिगत तौर पर इन दोनों की मुलाक़ात के कोई चिन्ह नहीं मिलते।

कौन जाने कि आज से सदी-दो सदी पश्चात् कोई अनुराग पुन: आए और लिख दे कि “रवींद्र जैन” व “राजकमल” एक ही हस्ती के दो नाम हैं। बहुत संभव है कि ऐसा हो, किंतु फ़िलहाल इसकी संभावना कम है, चूँकि इनकी जीवंत सुधियों वाले लोग अभी फ़ानी नहीं हुए हैं।

हालाँकि एक रोज़ ये होगा ज़रूर!

अवश्य लिखा जाएगा कि “रवींद्र जैन” और “राजकमल” एक ही दीप की दो अग्निशिखाओं के नाम थे, एक ही चुम्बक के दो ध्रुव, एक ही मूरत के दो दृष्टिकोण। इस सदी नहीं तो उस सदी सही, किंतु एक न एक दिन ये लिखा अवश्य जाएगा।

अस्तु।


Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

  1. रामायण एवं महाभारत दोनों के गीत श्रेष्ठतम और उच्च मनो योग की रचनाए
    है।

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