किशोर दा


चार अगस्त तो कब की गुज़र गई. मग़र किशोर दा आज याद आए!

सचिन तेंदुलकर अगर क्रिकेट के बरक़्स गायकी के गुण लिए पैदा होते, तब भी किशोर कुमार से बेहतर न गा पाते। उनका स्तर सिनेमाई गायकी में सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र अथवा कि कोई तारे सितारे जैसा नहीं, बल्कि समग्र आसमान जैसा विस्तृत है। यदि इस सृष्टि के किसी आयाम में गायकी का कोई साम्राज्य हो, तो निस्सन्देह उसके अधिपति किशोर दा होंगे!

ये ठीक वैसे ही है, जैसे कि मेवाड़ के अधिपति महाराणा उदय सिंह!

क्या ही आश्चर्य है कि दोनों बर्थडे ट्विन्स हैं। और क्या ही ग़ज़ब का आत्मविश्वास है उस पङ्क्ति में, जो कहती है : “किशोर दा जैसे लोग पांच सौ बरस में एक बार होते हैं!”

अव्वल तो पांच सौ बरस पहले महाराणा उदय सिंह हुए थे। उन्होंने अरावली की अलंघ्य पहाड़ियों से घिरी एक भूमि को अपनी राजधानी बनाया।

और दूजे पांच सौ बरस बाद किशोर दा हुए। उन्होंने अनगढ़ सुरों से शिखरबद्ध आवाज़ के पर्वतों घिरी एक ऐसी दुनिया का निर्माण कर दिया, जिसे लांघना कमसकम पांच सौ बरस तक तो असंभव होगा।

अपने क्षेत्र के ऐसे दो जीनियस लोगों वाले चार अगस्त को क्या नाम दूं? बेहतर होगा कि इसे डे ऑफ जीनियसिटी कह कर पुकार लूँ! बरस का दो सौ सोलहवाँ दिन, ऐसा अंक जिससे ज्यादह आईक्यू होना मानवों के लिए संभव नहीं।

तमाम ऐतिहासिक खासियतों को लिए हुए, किन्तु फिर भी हर बरस का एक आम दिन, जिसे पिछली सदी के तीसवें बरस ख़ास बना दिया गया। यानी कि उन्नीस सौ उनतीस में गायकी के उस खलील ज़िब्रान का जन्म हुआ था और यही बहाना है, हर चार अगस्त के रोज़ उसे याद करने का!

किशोर दा को याद करने का बस एक दिन? उन्हें बस इतना-सा जाना क्या? अमां चार अगस्त ही उन्हें याद करने के लिए नहीं है, बल्कि ये दिन दिखाने का दिन है, कि ये जमाना उन्हें कितना याद किया किया करता है!

किशोर दा को तौलने सकने वाले तराजू उनके साथ ही चले गए। किन्तु फिर भी उनकी तुलना करूँ तो वे फ़िल्म संगीत उद्योग के “माघ” हैं। माघ, यानी कि संस्कृत साहित्य का एक बड़ा नाम, जिसने भारवि को देख पढ़ सुनकर लिखना शुरू किया और जब अपनी कृति की ऊंचाई पर पहुंचे, तो भारवि से बहुत बहुत आगे निकल आए!

ठीक वैसे ही, चालीस के दशक में जब किशोर कुमार मध्यभारत के एक छोटे से शहर खंडवा से मुंबई पहुंचे, तो उनके पास वो आवाज़ नहीं थी, जिसे आप ओ मेरे दिल में चैन, मेरे सपनों की रानी या फिर ओ साथी रे में सुनते हैं। बल्कि वे उनदिनों के बेहद प्रसिद्ध गायक के०एल० सहगल की सेकण्ड क्लास कॉपी थे।

किन्तु जब वे अपने शिखर पर पहुंचे, तो उन्होंने इस सफर में अपनी एक ख़ास शैली विकसित कर ली, किशोर शैली। वो शैली जिसकी तुलना कोई मानव अगले पांच सौ बरस में भी न कर सकेगा। इस शैली की ख़ास बात ये है कि इसमें साहित्य जैसा जादुई यथार्थवाद है।

यथार्थ ये कि इस शैली के सोलो, डुएट और कोरस में केवल एक ही आवाज़ समानशै: प्रभावी है और वो है स्वयं उनकी अपनी आवाज़! जादू का आलम ये है कि इसके साथ चलती हर आवाज़ को आपका मन सहज उपेक्षित कर देगा। इस बात को तमाम संङ्गीतप्रेमियों ने महसूस किया होगा और तमाम अब करेंगे कि किशोर जब गाते हैं, तो माहौल के तमाम घनत्व में केवल वे ही होते हैं, जैसा कि अन्य गायकों के साथ नहीं होता।

जब वे डुएट गाते हैं, तो आप चाह कर भी को-सिंगर की आवाज़ पर ध्यान केंद्रित नहीं कर सकते। यदि कर सकते हैं तो कर के देखिएगा!

कितने ही लोगों होंगे, जो बिना कुछ देर सोचे बता न सकेंगे कि गाइड फिल्म का सुप्रसिद्ध गीत “गाता रहे मेरा दिल”, एक डुएट सोंग है। एक्चुअली, ये है, डुएट ही है। “कोरा कागज़ था ये मन मेरा” भी एक डुएट है। “शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब” और “सिलसिला” का टाइटल सोंग भी इसी सूची में है।

यदि अभी इसी वक़्त इन गानों बिना सुने ये निर्णय करना पड़े कि ये सब सोलो हैं या डुएट्स हैं, तो कड़े असमंजस से साथ दिल को मनाना पड़ता है। हाथ कंगन को आरसी क्या, आपके पॉकेट में तमाम दुनियावी गीतों का खजाना है, अभी इसी वक़्त किशोर दा के जादुई यथार्थवाद को महसूस कर लीजिए!

उनकी आवाज़ का भारीपन भी कम जादुई नहीं। चूंकि ये आवाज़ उन सुरमई जंजीरों जैसी भारी नहीं, जिन्हें ग़ज़ल गायक तन्हाई के पैरों से लपेट कर भीड़भरे माहौल में भी हर एक इंसान को अलग अलग अस्तित्व देकर निरा तन्हा कर देते हैं। बल्कि ये आवाज़, किसी विशालकाय पक्षी के भारी डैनों जैसी है, जो तमाम सुनने वालों की तन्हाई को एक साथ लेकर उड़ जाती है।

यथा, जब किशोर स्वर उठाते हैं कि “सजी नहीं बारात तो क्या, आई न मिलन की रात तो क्या”, तब ये गाना निहायत ही व्यक्तिगत पीड़ा से भरपूर होकर भी प्रेम असफल हो पड़े आशिकों का कलेक्टिव वौइस् बन जाता है। ऐसे ही भाव “तुम बिन जाऊं कहाँ” या फिर “कोई होता जिसको अपना, हम अपना कह लेते यारो” सुनकर आते हैं। निहायत व्यक्तिगत पीड़ा के गीत, किन्तु प्रकटीकरण इतना सघन कि मानो तमाम संसार की पीड़ाओं का सामूहिक शोकगान हो!

और फिर आता है, बांग्ला का युगजयी गीत : “चीरोदिनी तुमी जे अमार!” - एक ऐसा गीत जिसने पूरे बांग्ला संगीत युग पर आधिपत्य किया और ये उन गानों में प्रमुख रहा, जो बांग्ला से बाहर आकर अन्य भाषा के गीत-संगीत-प्रेमियों के जेहन पर छा गये।

यों तो किशोर ने बंगाली, हिंदी, मराठी, असमी, गुजराती, कन्नड़, भोजपुरी, मलयालम, उड़िया और उर्दू सहित कई भारतीय भाषाओं में गायन किया, किंतु बांग्ला और हिंदी गीत अधिक प्रचलित हैं। यही कारण है कि बहुत से लोग आज भी किशोर दा को बंगाल का मानते हैं। इस अवधारणा में किंचित प्रभाव इस बात का है कि बांग्ला गीतों में उनका बहुत योगदान रहा।

उनके लिए किसी एक पंक्ति को चुनना पड़े तो बच्चन की पंक्ति को चुन लूँगा : “थी हँसी ऐसी जिसे सुन, बादलों ने शर्म खाई”। कदाचित् यही पंक्ति उस चेहरे पर सटीक बैठती है। एक ऐसा व्यक्तित्व जो गंभीर स्थितियों में भी हास्य का पर्याय ढूँढ लिया करता था, जिसकी जिजीविषा अपरिमित कल्पनाओं से भी परे थी।

-- ऐसे महान कलाकार श्री आभास कुमार गांगुली, जोकि “किशोर कुमार” नाम से प्रसिद्ध हुए, उन्हें विलंबित ही सही, उनके जन्मदिवस पर हम सबका सुरमई नमन पहुँचे!

अस्तु।

Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

  1. किशोर कुमार निःसंदेह बहुत बढ़िया गायक है परन्तु लेख कुछ अतिशयोक्ति पुर्ण लगा।

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    1. Sanj : अव्वल तो गायक हैं, है नहीं। दूसरी बात ये कि पहले "पूर्ण" की वर्तनी ठीक लिखना सीखिए, फिर मुझे लेखन अलंकारों का ज्ञान दीजिएगा।

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  2. सर्वप्रिय दादा के लिए कम शब्दों में बहुत कुछ कहता सुन्दर लेख। 👏👏🎉🎉

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  3. बहुत उम्दा एवम वास्तविकता से अवगत कराता है लेख।👏

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  4. मेरी याद का पहले गाने जो मैने गुनगुनाये......
    ● एक रास्ता है जिंदगी ......
    ● मेरे नैना सावन भादो.....
    हालांकि तब दूसरे गाने का अर्थ भी पता नही था ..... लेकिन तभी मन किशोर मय हो गया था ।

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  5. मजा आ गया पढ़कर योगी जी ।।

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