रामायण रिटर्न्स


आजकल तमाम प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर, जनमानस के अंतस्तल को प्रतिपल झुलसातीं- झकझोरतीं खबरों के रेगिस्तान के बीच, एक सुकून भरी ख़बर आ रही है कि “रामायण” का पुनः प्रसारण होगा!

-- ये कुछ वैसा है, जैसे किसी कर्मठ किन्तु सेवानिवृत्त कर्मचारी “दूरदर्शन” की वापसी।

यों तो भारत में सेवानिवृत्त होने की परंपरा साठ बरस पर मानी जाती है, और सेवानिवृत्ति भी बड़े गाजे-बाजे के साथ की जाती हैं। किन्तु उक्त दोनों ही मुआमलों में अपना “दूरदर्शन” बड़ा दुर्भाग्यशाली रहा।

अव्वल तो इसकी सेवानिवृत्ति तयशुदा काल से बरसों पहले हो गई। और तिस पर भी पीड़ादायक ये रहा कि पूरा घटनाक्रम बड़ी ख़ामोशी से सम्पन्न हो गया। अभी बीते ही बरस दूरदर्शन ने साठ बरस पूरे किए हैं, कितनों को याद है?

बहरहाल, बहरकैफ़।

बहुत संभव है कि “दूरदर्शन” की जयंती हमें स्मृत भी हो। किन्तु हम में से कितनों के पास उस स्मृति का रेखाचित्र है, जब धारावाहिक “रामायण” ने अपने पच्चीस बरस पूरे किए। ये सन् 2012 की एक भूली-बिसरी घटना रही होगी।

वास्तव में, इन सब वाकयों का आरंभ एक ऐतिहासिक दिन 25 जनवरी से हुआ था, सन् 1987 की तरुणाई का दिन। घोषणा हुई कि हफ्ते में एक बार टीवी पर "रामायण" का प्रसारण होगा। घोषणा के साथ, एक वैसे सिलसिले की शुरूआत हुई, जिसने तमाम मिथकों का नाश किया और उतने ही मिथकों को क़ायम भी!

यथा : जो बुजुर्गवार अपने घरों में टीवी को वाहियात बक्से का पुकार-नाम देकर प्रतिबंधित कर चुके थे, उन्होंने ही टीवी को खरीदे जाने की पैरवी की।

आंकड़े बताते हैं कि उस दौर में सिंगापुर, भारत व दुबई में सर्वाधिक टीवी सेट बिके और कारण सिर्फ तीन : “रामायण”, “रामायण” और “रामायण”।

इस धारावाहिक की शूटिंग में जो तत्समय सुलभ समस्याएं आईं, वो रोचक थीं। जैसे कि एक दृश्य में कौवे को दिखाया जाना था तो सागर साहब ने दो सौ लोगों की ड्यूटी इसी बात पर लगा दी कि एक कौवा पकड़ें, स्मरण रहे कि पकड़े जाने की पूरी प्रक्रिया में कौवे को कष्ट न हो।

ज़ाहिर है कि एक कौवा, मात्र एक कौवा पकड़ने में सात दिन का लंबा समय लगा!

और सागर साहब की ये मेहनत व परफेक्शन का आग्रह व्यर्थ नहीं गया। ये धारावाहिक तकरीबन पैंसठ करोड़ लोगों ने देखा। शेष उनचास देशों में, जो वीसीआर कैसेट्स, सीडी व डीवीडी बिकीं, उनकी संख्या का कोई आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं।

अस्सी करोड़ की आबादी वाले देश में पैंसठ करोड़ लोग नियमित रूप से जिस कार्यक्रम को देखें, उसकी प्रसिद्धि का अंदाजा आज के मूड-एपिसोड वाले दौर में लगाया जाना नामुमकिन है।

प्रसारण के समय यदि विद्युत् प्रदाय बंद हो जाता था, तो बुज़ुर्ग लोग कहते थे : “जरूर कोई मुस्लिम आ बैठा है, इसलिए लाइट काट दी है!” और युवा लोग आंदोलन करने पर उतारू हो जाते थे. ऐसी छिटपुट घटनाओं का इतिहास लगभग हर शहर के पास है!

इसी प्रसिद्धि के कारण दूरदर्शन मालामाल हो गया। दूरदर्शन को प्रति एपिसोड चालीस लाख की आय हुआ करती थी। स्मरण रहे कि ये सन् सत्तासी के दौर की बात है, जब डॉलर का मूल्य बारह-तेरह रुपया था।

और एक रोज़, दुनिया की हर एक चीज़ की तरह, इस धारावाहिक का अठहत्तर एपिसोड लंबा सफर भी समाप्त हो गया। वो उदासी भरी शाम, सन् 1988 की 31 जुलाई थी।

ऐसी भव्य योजना के साथ भारतीय धारावाहिक इतिहास का स्वर्णिम पन्ना लिखा गया था, जो एक भव्य आधार, एक शानदार नींव और एक ऊंचा मंच अपने पीछे छोड़ गया, जिसपर होने वाले कौतुकों को देखकर, किसानों के इस राष्ट्र की पीढ़ियों के स्वप्न सिनेमा वाले हो गए।

हालाँकि, कैम्ब्रिज विवि में एक भारतीय विद्यार्थी ने तमाम भारतीय भावनाओं की उपेक्षा करते हुए इस पूरे धारावाहिक को हिन्दू-राष्ट्रवादी राजनीति का नाम देकर अपने शोध-प्रबंध का विषय चुन लिया और डॉक्टरेट की उपाधि भी हासिल की!

ये अपने दौर का अघोषित कर्फ्यू था। इस अनियोजित कर्फ्यू का ज़िक्र उठते ही, तमाम जेहन “कोहिनूर” और “आख़री मुगल” जैसी मिलियन कॉपी बेस्ट-सेलर पुस्तकों के लेखक “विलियम डेलरिम्पल” के उस आर्टिकल को निहारने लगते हैं, जिसे ब्रितानी अख़बार “द टेलीग्राफ” ने बड़ी प्रमुखता से छापा था।

आर्टिकल में बताया गया था कि किस तरह विलियम को एक अजीब स्थिति से दो चार होना पड़ा। हुआ कुछ यों था कि वे पुरातात्विक व सांस्कृतिक चर्चाओं को लेकर होने वाली एक कैबिनेट स्तर की बैठक में भाग लेने आए थे, किन्तु देखते हैं क्या कि एक भी सदस्य मौजूद नहीं।

कारण महज इतना था कि बैठक का समय “रामायण” के प्रसारण समय के साथ क्लैश कर गया था!

प्रसारण का ये सिलसिला, अपने साथ घोषित एक अघोषित लॉकडाउन लेकर आता था। पैंतीस मिनट के उस प्रसारण का एक पल भी न छोड़ देने की ऐसी ललक कि न केवल सड़कें सुनसान हो जाती थीं, बल्कि रेलवे स्टेशनों पर पर रुकने वाली ट्रेन के चालक दल भी "रामायण" देखने चले जाते थे।

और ट्रेन अपने तय समय से चूक जाती थी!

##

प्रसारण के दौरान होने वाले “लॉकडाउन” के इस सिलसिले की केंद्रीय प्रवृत्ति, प्रभु श्रीराम की वजनदार उपस्थिति की अनुभूतियों से भरी हुई है। इतिहास गवाह है कि श्रीराम आते हैं, तो अक़्सर “लॉकडाउन” देखने को मिलता है!

पहले पहल ये दृश्य बाबा तुलसी के शब्द-नगर “मिथिला” में निदर्शित हुआ था। ज्यों ही प्रभु ने नगर में पग धरा, नगरवासी अपने तमाम नगर को सूना छोड़ राजमार्ग पर आ टिके। कदाचित् ये सनातन साहित्य का पहला “लॉकडाउन” था, आउटर लॉकडाउन!

ऐसा ही एक “लॉकडाउन” तब देखने को मिला, जब अवध के युवराज नव-युवरानी को लेकर नगर लौटे। और ठीक वैसा ही एक “लॉकडाउन” तब प्रकटा, जब श्रीराम वनवास को प्रस्थान कर गए। नगर के मार्ग महीनों सूने रहे, कोई व्यापार नहीं हुआ। यहाँ तक कि नगर में कहीं भी एक चूल्हा तक न जलता था।

प्रभु श्रीराम के अपने जीवनकाल में तमाम ऐसे योग-दुर्योग उत्पन्न हुए। और फिर उनके जन्मस्थान की मुक्ति से लेकर पुनर्स्थापना तक भी, अयोध्या ने कई कई “लॉकडाउन्स” को देखा है। अभी हाल में अयोध्या में हुआ एक स्थापना कार्यक्रम, वैश्विक “लॉकडाउन” के बीच, बिना किसी आयोजन के बीत गया।

यदि स्थितियां सामान्य होतीं तो मैं समझता हूँ कि ये कार्यक्रम बीते पाँच सौ बरस के हिन्दू-इतिहास का सबसे भव्य कार्यक्रम होता। किन्तु क्या कहें, मेरे राम का “लॉकडाउन” गहरा नाता। और अब ऐसे राष्ट्रीय एकाकीपन में, प्रभु श्रीराम पुनः “दूरदर्शन” पर प्रकटेंगे।

यद्यपि, अब पीढियां बदल गईं हैं। सो, वैसा आनंद तो संभव नहीं कि पौने नौ बजे से ही मिठाई, धूप व पुष्पों से टीवी सेट का पूजन-अर्चन कर “रामायण” की प्रतीक्षा की जाए, किन्तु फिर भी, किसी दौर में वैसे आनंद की भी प्राप्ति हुई थी, ये अवश्य मुस्कुराहटों के साथ स्मरण आएगा।

वैश्विक महामारी के दौर में, इतनी-सी मुस्कुराहट के लिए धन्यवाद दूरदर्शन! हमें हमारे रामलला- श्रीराम- राजाराम से मिलवाने के लिए कोटि कोटि अभिनंदन! 

इति नमस्कारान्ते।


Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

  1. बहु प्रतीक्षित आलेखों को पढ़ना सुखद अहसास है।आपको उत्तम लेखन की बहुत बहुत बधाई।

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