रामराज्य


इक्कीसवीं सदी की राजनैतिक सभाओं में, “रामराज्य” स्थापना का उद्घोष करने वाले किसी राजनेता से “रामराज्य” के विषय में पूछ लीजिए। जानते हैं क्या होगा?

अव्वल तो उनका चापलूस-वर्ग ही आपको आड़े हाथों ले लेगा। तथापि, यदि नेताजी के मन का उपदेशक जाग ही गया, तो प्रत्युत्तर में अपराधमुक्त, भ्रष्टाचारमुक्त, न्यायपूर्ण व सम्यक्-दृष्टि जैसे कुछ भारी-भारी शब्द, बड़ी सतही व्याख्या की साथ मिल जाएँगे। शेष कुछ भी नहीं, कोई चिंतन कोई मनन नहीं।

वर्तमान युग में केवल दो राजनेता ऐसे हैं, जो वास्तव में “रामराज्य” की व्याख्या न केवल शब्दों से कर सकते हैं, बल्कि अपने कार्यों से भी लगातार कर प्रकट कर रहे हैं। ये और बात है कि ये दोनों ही जन, असुरों के कारण अपने सम्पूर्ण प्रभाव को प्रकट नहीं कर पा रहे हैं।

क्या नाम लेने की आवश्यकता है कि ये दोनों राजनेता कौन-कौन हैं? सत्य ये है कि इन दोनों से इतर कोई राजनेता इस कालखंड में है ही नहीं, जो अपने “घोषणा-पत्र” की भी समग्र व्याख्या कर सके, “रामराज्य” की व्याख्या तो दूर की बात है।

वास्तव में, राजनीति करने का अधिकार केवल उसी मनुष्य को होता है, जो “वेदनीति”, “देवनीति” और “ब्रह्मनीति” का वेत्ता हो। इसके उपरांत ही, उसे राजनीति करने का नैतिक अधिकार मिल पाता है।

किंतु आज ये बातें महज़ शास्त्रों में लिखी रह गईं हैं! प्राच्यकाल में सदा-सर्वदा जगद्गुरु रहे भारत देश का दुर्भाग्य है कि उसकी आधुनिक सत्ता क़रीब क़रीब आधी शताब्दी तक हठी, दंभी व अज्ञानी लोगों के हाथों रही, “रामराज्य” महज़ स्वप्नों में व बातों में ही रहा।

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“रामराज्य” की अवधारणा समग्र भारतीय राजनीति के सम्पूर्ण चिंतन का अंतिम बिंदु है। यदि पूरी राजनैतिक प्रक्रिया की तुलना कृषि-कार्य से कर दी जाए, तो “रामराज्य” की तुलना उत्तम फसल की प्राप्ति पर प्रकटी कृषक-मुस्कान से की जाएगी।

इस शब्द “रामराज्य” में ऐसा विलक्षण सौंदर्य है कि ये अकेला समाज के प्रत्येक वर्ग के चित्त को मोह लेता है। जब कोई राजनेता अपने चुनाव प्रचार में कहता है : “रामराज्य की स्थापना करेंगे!” : ऐसा सुनने मात्र से ही, सभा में मौजूद धनवान, निर्धन, मध्यवर्ग, युवा, नारी एवं वृद्ध आदि समस्त लोगों के चेहरों पर संतोष का भाव देखा जा सकता है।

वस्तुतः ये श्रीराम की न्यायबुद्धि का प्रताप है कि उनकी प्रत्येक योजना, समाज के सभी वर्गों को एकसाथ संतुष्ट करने का सामर्थ्य लिए होती थी!

महाराज मनु के प्राच्यतम राजनैतिक चिंतन से लेकर आधुनिकतम जेपी-चिंतन (लोकनायक जयप्रकाश नारायण) तक, भारतीय राजनीति ने अनगिनत पड़ावों को पार किया है। किंतु इन तमाम पड़ावों में एक भी स्वयं को उस स्तर की “लोकोक्ति” नहीं बना सका, जिस स्तर पर “रामराज्य” स्थित है।

ध्यातव्य हो कि राजनैतिक चिंतनों की पूरी शृंखला में, न तो श्रीराम कहीं अभिहित हैं और न ही महर्षि वशिष्ठ। राजनैतिक विचारकों की सूची में, महाराज मनु के उपरांत देवव्रत भीष्म का नाम आता है, किंतु फिर भी, “रामराज्य” शीर्ष पर विराजमान है।

चूँकि इक्ष्वाकु वंश की तमाम पीढ़ियाँ उपदेशक की भाँति नहीं, कर्मयोद्धाओं की भाँति स्थापित है। उनके प्रजा-प्रिय कार्य ही उनके उपदेश हैं।

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बहुधा, लोगों को भ्रम हो जाया करता है कि “रामराज्य” कोई एक विशेष स्थिति है और ये तत्काल वहाँ प्रकट हो जाती है, जहां श्रीराम राजा बन जाएँ। किंतु इस बात में एक सुधार की आवश्यकता है!

इसे कुछ इस तरह कहा जाए, तो सम्पूर्णता मिलेगी कि “रामराज्य” मात्र एक स्थिति से कहीं बढ़कर एक सम्पूर्ण “प्रक्रिया” है!

इस प्रक्रिया का आरंभ वैदिककाल से होने लगा था, जब जनजीवन का प्रसार केवल सरस्वती नदी की उपात्यका तक ही सीमित न रह गया। वैदिककाल में उठान आते आते, लाखों उत्साही पाँव गंगा के सम्पूर्ण मैदानी भाग पर चिन्हित हो चुके थे। नई सीमाएँ बनीं। पृथक् पृथक् राजवंश बने।

इन्हीं राजवंशों में से एक इक्ष्वाकु वंशावली में श्रीराम का जन्म हुआ। वे तिरसठ पूर्वजों के सामूहिक वैचारिक श्रम का प्रतिफल बनकर जन्मे और समग्र भारतवर्ष की दशा-दिशा को न केवल सुदीर्घ काल के लिए सुदृढ़ किया, बल्कि अगली पीढ़ियों के लिए “रामराज्य” जैसे अकाट्य उद्धरण को भी प्रस्तुत किया।

वास्तव में, ये कार्य धर्मवेत्ताओं की हिस्से है कि वे श्रीराम की हृदय की राजनैतिक बनावट को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करें, ताकि समाज न केवल उनकी पूजा तक सीमित रह जाए, बल्कि उनके जैसा बनने का यत्न भी करे। कमसकम शासन-प्रशासन में शामिल लोग उनका अनुकरण करें ही।

किंतु तमाम धर्मवेत्ता उन्हें “ईश्वर” कह कर मौन हो जाते हैं! समाज को संदेश जाता है कि भला श्रीराम का अनुकरण कैसे किया जाए, वे तो ईश्वर थे, हम क्षुद्र मनुष्य हैं। और इस तरह समाज “रामराज्य” की कल्पनाएँ तो अनवरत करता रहता है, किंतु उसे वास्तविक रूप देने में असमर्थ हो जाता है।

श्रीराम नि:संदेह श्रीहरि विष्णु के अवतार थे। किंतु वे बालरूप में जन्मे, मानो श्रीहरि स्वयं अपनी बनाई सृष्टि की परीक्षा करने प्रकटे हों। उन्हें जहां जहां, जो कुछ भी “सीखने” का अवसर मिला, बड़े मनोयोग से सीखा। जैसे कि महर्षि विश्वामित्र से बला-अतिबला विद्याओं का शिक्षण।

इस तरह एक योग्य बालक का चरित्र-निर्माण हुआ!

कोई आश्चर्य नहीं होता कि श्रीराम का व्यक्तित्व महाराज मनु द्वारा बताए गए “राजा” के गुणों से शाताधिक प्रतिशत समान है। हाँ, इस बात पर आश्चर्य अवश्य होता है कि मानो महाराज मनु ने श्रीराम को ध्यान में रखते हुए “राजा” के गुणों की व्याख्या की हो!

महाराज मनु श्रीराम के युगांतर पूर्वज थे। एक पूर्वज किस विधि अपने उत्तरवर्ती को देख पाता है? स्पष्ट है, श्रीराम तत्कालीन सामाजिक बनावट की श्रेष्ठ उत्पाद थे। एक ऐसा कालखंड, जहां “उत्तर” के राजपुत्र, “दक्षिण” के सभ्यतागत उद्भव के लिए, वहाँ की आदिम जातियों की कंधे से कंधा मिलाया करते थे।

एक ऐसा कालखंड, जो स्पष्टरूप से बहुदेववादी था। जहां पूजा अर्चना पर कोई प्रतिबंध न था। प्रजा जिसे चाहे पूजे, ये विषय राज-आज्ञा से कोसों दूर था। जहां यज्ञ की प्रधानता थी। जहां नाग, नदी व वृक्षों को पूजा जाता था।

उक्त सभी तथ्यों का तात्पर्य केवल पूजा तक ही सीमित नहीं, बल्कि ये प्रजा की स्वतंत्र वैचारिक चेतना के प्रतीक बिन्दु हैं कि रामायण-काल की प्रजा को कितनी स्वतंत्रता प्राप्त थी। यों भी, मात्र दो ही चावल के दानों से समूची खीर की स्थिति को जान लेना, उत्तम रीति है।

प्रजा को प्राप्त ये तमाम स्वतंत्रताएँ, केवल श्रीराम का ही उपहार न थीं, बल्कि समग्र इक्ष्वाकु वंश ने इन्हें मर्यादा की भाँति निभाया। वैदिककाल के ठीक ऐसे ही कालखंड को रामायण-काल के नाम से जाना जाता है। वस्तुतः “रामराज्य” की स्थापना का सटीक आधुनिक अर्थ होगा : “रामायण-काल की सामाजिक बनावट को पुनर्स्थापित करना!”

इति नमस्कारान्ते।


Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

  1. मर्यादाओं को जी कर ही उनको स्थापित किया जा सकता है, संभावनाओं को सत्य स्थापित किया जा सकता है। इसीलिए श्री राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। समाज इन्हें पूज कर इनके आदर्शों को कथाओं के रूप में मान्यता दे सकता है, व्यवहार में उतारने की चेष्टा भी नही है। उसके अनुकूल व्यवस्था नही है, बनाने की चाहना भी नही दिखाई देती। शायद भविष्य में बेहतर संभावनाएं हो! जय जय श्री राम 🚩🙏

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