रावण


अंततोगत्वा वो घड़ी आ गई, जब छोटे पर्दे पर पुनश्च “रावण” का प्राकट्य हुआ, हिंदूधर्म साहित्य का सबसे बड़ा खलनायक। और इसके साथ ही आरंभ हुए हैं, रावण-स्तुतिगान।

वस्तुतः ये वो घड़ी है, जब आपको निश्चित करना है कि आप छोटे पर्दे पर “रावण” को जीवंत कर देने वाले श्री अरविंद त्रिवेदी जी के कालजयी अभिनय की प्रशंसा करना चाहते हैं अथवा “रावण” को ही श्रेष्ठ बना कह देना चाहते हैं।

हमारे कुछ बंधु हैं, जो बरस भर “जय दादा परशुराम” का नारा बुलंद करते हैं, दशहरा आते ही रावण के पक्षधर हो जाते हैं। वे लोग दादा की उपाधि “रावण” को भी दिया करते हैं। ऐसे ही लोग आज टेलीविजन पर “रावण” को देख लहालोट हो रहे हैं।

अवश्य ही, खलनायक की योग्यता नायक को अति-योग्य बनने का एक प्रच्छन्न आग्रह होता है। “रावण” यदि वास्तव में एक कमज़ोर राक्षस होता, तो उसका नाश करने के लिए श्रीहरि ही क्यों प्रकटते? किन्तु हृदय विचलित हो गया, जब पढ़ा कि “रावण” के लिए राम को हराना क्या मुश्किल था।

हद तो तब हो गई, जब इस पक्ष में अगला तर्क मिला कि “रावण” मायावी था, कुछ भी कर सकता था!

बहुत संभव है कि इस पूरे प्रलाप का कारण अज्ञान हो! मग़र अफ़सोस, ऐसा है नहीं। बड़ा आनंद मिलता मुझे, यदि वाकई इसका कारण “अज्ञान” ही होता, मैं उस अज्ञान का खंडन कर आपके आभार प्राप्त करता।

वैसे आपको ध्यातव्य हो कि अज्ञानी होना अपराधी होने की “रेमिडी” नहीं है। आप किसी अपराध के उपरान्त, यों कह कर नहीं बच सकते कि आपको इस कार्य के विरुद्ध कानूनी धारा का ज्ञान नहीं था।

हालांकि, धार्मिक मामले अब भी जिज्ञासा के भाव को तवज्जो देते हैं। हर मनुष्य अज्ञान के ही सोपान से ही आरंभ करता है। सो, मुझे आनंद मिलता कि वे लोग रावण की प्रशंसा अज्ञानवश करते, फिर मैं उन्हें सत्य का ज्ञान करवाता!

किन्तु मैं विस्मित हो जाता हूँ कि वे लोग मानस के तमाम रावण संबंधी प्रसंगों को कितने सुन्दर तरीके से सूचीबद्ध कर, रावण का महिमामंडन करते हैं। वे लोग कुछ भी हों, अज्ञानी तो नहीं हो सकते!

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“रावण” हमारी हिन्दू माइथोलॉजी का सबसे बड़ा खलनायक है। सहस्रबाहु, कंस और दुर्योधन से बड़ा। उससे बड़ा खलनायक कोई नहीं!

अक़्सर ये तर्क दिया जाता है कि “रावण” को पूर्व से ज्ञात था कि “खर दूषन मोहि सम बलवंता, तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता।” ये मानस की रावणोवाच चौपाई है। “रावण” विचार कर रहा है।

और यहीं हमारे ब्राह्मण बंधुओं का वैचारिक स्खलन हो जाता है। फिर वे आगे पढ़ने की जहमत नहीं उठाते कि :

“जौं नररूप भूपसुत कोऊ, हरिहउं नारि जीति रन दोऊ।” [ अर्थात् कि यदि वे दोनों युवान मानुष राजपुत्र हैं, तो उनकी नारी को हरण कर उनदोनों को युद्ध में पराजित कर दूंगा! ]

चूंकि नरों से उसे कोई भय न था। उसका पूर्वाग्रह था कि मनुष्य तो राक्षसों का सामना कर ही नहीं सकते। इसी कारण से तो उसने प्रजापति ब्रह्मा से कहा था कि मेरी मृत्यु मनुष्य के हाथों हो। चौपाई का प्रथम चरण भी है : “रावन मरन मनुज कर जाचा!”

ऐसा विचार “रावण” कर रहा था। वो एक तीर से दो शिकार करने की योजना बना रहा था, किसी कुशल शिकारी की भांति। वो दोनों पत्तों का अवलोकन कर रहा था, किसी चतुर जुआरी की भांति।

किन्तु हमारे रावणपूजक ज्ञानी बंधुओं को इतना विचारने का समय कहाँ कि “रावण” दोनों पक्षों पर विचार कर रहा है। वे रावणपूजक लोग पहले पक्ष को पढ़कर ही इतिश्री कर निर्णय ले लेते हैं कि “रावण” धर्मात्मा था!

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उक्त तमाम विचार कर, “रावण” मारीच से भेंट हेतु प्रस्थान कर गया। और वहां भी यही योजना निर्मित की, कि यदि राम तुम्हारी मृगलीला के झांसे में न आए तो वे ईश्वर हैं, और यदि तुम्हारा शिकार करने चले आए तो वे केवल और केवल नर ही हैं!

ठीक यही प्रसंग महर्षि याज्ञवल्क्य ने भरद्वाज मुनि को मानसरोवर के तट पर सुनाया है। इस कथावाचन और श्रवण के विषय में मानस कहता है :

“जागबलिक जो कथा सुहाई,
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई।”

-- इसी कथावाचन में महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा है :

“करि छलु मूढ़ हरी बैदेही,
प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही।”

यानी कि उसने छल कर के सीता का हरण किया। उस दुष्ट को प्रभु के प्रभाव का लेशमात्र भी भान न था। उसका अहम् “जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना” जैसा था, कुछ यों कि जैसे टिटिहरी आकाश को थामे रखने के लिए पैर ऊपर कर सोती है!

“रावण” के विषय में यही सब उक्तियाँ शिव ने उमा के समक्ष दुहराई हैं। वही शिव जी जिनके बारे में प्रसिद्ध है :

१) सिव सर्बग्य जानु सब कोई।
२) मुधा बचन नहिं संकर कहहिं।

अर्थात् इस संसार में शिव से कुछ भी छिपा नहीं है और न ही शिव कभी झूठ बोलते हैं। उक्त दोनों ही कारण न थे, जो शिव ने “रावण” द्वार श्रीराम को मन ही मन प्रभु मान लेने की बात उमा से छुपाए रखी।

यदि कहीं “रावण” के मन में श्रीराम के ईश्वर होने का संदेह भी होता, तो शिव इस बात का उल्लेख उमा से अवश्य करते, याज्ञवल्क्य इसे भरद्वाज से साझा करते!

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मानस में ही, प्रभु श्रीराम के ईश्वर या मनुष्य रूप में जांचने की प्रक्रिया महर्षि परशुराम ने भी की है। किंतु वो अज्ञान से उपजी जिज्ञासा थी, “रावण” की भांति कोई छिपी हुई चाल नहीं!

हिन्दू समाज के लिए “रावण” और परशुराम, नदी के दो कूल हैं और मनुष्य की इतनी शक्ति नहीं कि दोनों पर पाँव रख सके। मनुष्य तो दो नावों पर पाँव नहीं रख सकता, तो दो तटों पर पाँव किस भांति रखेगा।

ध्यातव्य हो, परशुराम समग्र क्षत्रिय समाज के विरोधी नहीं थे, केवल आताताई क्षत्रियों के विरोधी थे। एकबारगी हिन्दू समाज के नायक बतौर, आताताई क्षत्रियों के विरोधी परशुराम स्वीकार्य हो भी सकते हैं, किन्तु “रावण” का नायकत्व किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं।

निस्संदेह श्री अरविंद त्रिवेदी से बेहतर “रावण” इंडस्ट्री को नहीं मिला। बेहतर है कि उनके अभिनय का आनंद लिया जाए, न कि सबसे बड़े खलनायक के स्तुतिगान का एक और अवसर खोजा जाए।

राष्ट्र अपने तीन दशक पहले की रामायण-चेतना को जी रहा है। ऐसे अवसर पर “रावण” का नायकत्व बाँचा जाना, किसी भी स्थिति में प्रभु श्रीराम के देश को स्वीकार्य नहीं। आग्रह है कि इन आनंद के क्षणों में रावणस्तुति का विष न घोला जाए।

अस्तु, पुण्यात्मा श्री रामानंद सागर के रचनाकर्म से प्राप्त हुए आज के आनंद की जय हो!

इति नमस्कारान्ते।


Written By : Yogi Anurag
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