जन्माष्टमी



क्या “श्रीकृष्ण-जनमाष्टमी” लिखना आवश्यक है? या केवल “जन्माष्टमी” से ही काम चल जाएगा? सर्वविदित है, “जन्माष्टमी” शब्द से “कृष्ण” के जन्मदिवस का बोध होता है, किंतु “जन्मनवमी” जैसा कोई शब्द “राम” के जन्म हेतु प्रचलित नहीं, ऐसा क्यों भला?

चूँकि “जन्माष्टमी” और जनमानस में अधिक निकटता है। जनमानस को “राम” की भाँति जीना चाहिए, किंतु चाहते हैं “कृष्ण” की भाँति जीना। “इच्छाएँ” सदैव “कर्त्तव्यों” पर भारी रही हैं! यही कारण है कि “कृष्ण” का बोध मात्र “जन्माष्टमी” शब्द से हो जाता है, वहीं “राम” का बोध “रामनवमी” से हो पाता है!

“अष्टमी” व “नवमी” का एक और तथ्य है। वो ये है कि “जन्माष्टमी” की संख्या दो होती है, लगातार दो दिन। जबकि “रामनवमी” एक ही! पूरे भारत से मित्रों में फ़ोन आते हैं, और वही प्रश्न : “अनुराग, मथुरा में जन्माष्टमी कब है?” और मैं मुस्कुरा कर कहता हूँ : “यहाँ तो हर रोज़ उत्सव है मित्र!”

बहरहाल, मित्रवत् हास-परिहास से इतर, यदि वाकई में दो-दो “जन्माष्टमी” के मूल कारण को जानना है, तो “जन्माष्टमी” की ज्योतिषीय अन्वेषणा करनी होगी।

ज्योतिषीय यानी कि ज्योतिष से संबद्ध!

“ज्योतिष” के नाम आते ही लोगों के कान शंकित अश्व की भाँति खड़े हो जाते हैं। उनके लिए ज्योतिष का एक मात्र अर्थ होता है : “कुंडली देखकर चमत्कारिक वाणी कहना।”

अवश्य ही, “ज्योतिष” में कुंडली पक्ष भी व्याप्त है, किंतु फिर भी, “ज्योतिष”’में इस स्तर से भी ऊपर बहुत कुछ है। “ज्योतिष” शब्द की व्युत्पत्ति है “ज्योति” शब्द से, अर्थात् प्रकाशित करने योग्य कोई इकाई! इसपर कभी विस्तार से। फ़िलहाल प्रसंग है “जन्माष्टमी” का!

“जन्माष्टमी” के इस द्वि-दिवसीय द्वैत के पार्श्व में ढेरों तर्क हैं। मैंने भी अपने पितामह से पूछा था, बालपन में, अखबार देखकर कौंधी थी जिज्ञासा!

“बाबा! जन्माष्टमी दो क्यों होती हैं?”

वे बोले : “कृष्ण का जन्म मथुरा के कंस के कारागार में हुआ था। मथुरा उस दिन को जन्मदिवस मानता है। किन्तु जब कृष्ण गोकुल पहुँचे, तब दूसरा सूर्योदय हो चुका था। अतः गोकुल अपने लल्ला का जन्मदिन दूसरे दिन मनाता है। मथुरा इस उत्सव को “नन्दोत्सव” कहता है।”

कौतूहल से भर गया था मेरा मन, कि एक ही उत्सव के दो नाम, “जन्मोत्सव” भी और “नन्दोत्सव” भी!

जब मैं थोड़ा सा बड़ा हुआ, तो जान पाया कि दो “जन्माष्टमी” का ये द्वैत, जाने कितने ही सदी से अनवरत है, और अनंत तक चलेगा भी। इसके पार्श्व का कारण है, “कृष्ण” का जन्म अभिजित मुहूर्त्त में होना! स्मरण रहे, अभिजित “नक्षत्र” नहीं बल्कि अभिजित “मुहूर्त्त”!

यों तो “मुहूर्त्त” का निश्चय अपने आप में बड़ा विषय है, किंतु यहाँ “अभिजित” को संक्षेप में स्पष्ट करूँगा। उससे पूर्व एक छोटा सा प्रश्न, यदि शंकु के ऊपर ठीक नब्बे अंश से प्रकाश डाला जाए, तो छाया बनेगी या नहीं?

अवश्य ही, नहीं बनेगी!

“अभिजित” मुहूर्त्त का अर्थ है, ऐसी समयावधि जब सूर्य प्रकाश में शंकु की छाया निर्मित न हो! सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी, ये निश्चित कर सकता है कि केवल दोपहर का ही समय है, जब शंकु की छाया विलुप्त हो जाएगी।

आपने अवश्य सुना होगा, नल-दमयंती का प्रसंग, जहाँ देवी दमयंती ने इंद्र-अग्नि आदि देवताओं के मध्य खड़े राजा “नल” को उनकी छाया से ही पहचाना। छाया विलुप्त होने का अर्थ है, देवत्व को प्राप्त होना! जब शंकु की छाया विलुप्त हो जाए, उस समय जन्म लेने वाला बालक देवत्व को प्राप्त करता है, ईश्वरीय गुणों को, देवोचित् ऐश्वर्य को।

“राम” का जन्म दोपहर के “अभिजित” मुहूर्त्त में हुआ, कृष्ण का रात्रि में। दोनों देवत्व को प्राप्त हुए, या यूँ कहें ईश्वरत्व उन्हें प्राप्य हुआ! फिर भी “राम” का जीवन और जन्मोत्सव मर्यादों में बिंधा रहा, जबकि “कृष्ण” विवादित रहे और अब जन्मोत्सव भी दो-दो।

इसका मूल कारण है, “अभिजित” मुहूर्त्त की द्विगुणी प्रवृत्ति!

जहाँ दिवस का “अभिजित” निष्कंटक है, सीधे सधे तीर की भाँति सटीक लक्ष्य पर, वहीं रात्रि का “अभिजित” विवादित है, समय के अंत तक स्थिति को निलम्बित करने वाला। ठीक वैसे ही, “कृष्ण” का जन्म, उनका देवत्व और यहाँ तक कि उनका जन्मदिवस भी बँट गया है, विवादित हो गया है।

[ चित्र : नागदेवता कृष्ण ]


रात्रि के “अभिजित” मुहूर्त्त के कुछ और उदाहरण देखें तो “परीक्षित” के पुत्र “जनमेजय” का उदाहरण श्रेष्ठ है।

“जनमेजय” अपने पिता की आज्ञा से काबुल-कांधार के प्रांत में विद्रोह को दबाने गये थे। अपने कर्म का निर्वहन करने में ही, उन्हें संदेश मिला कि आपके पिताजी को तक्षक ने दंश दिया और वे मृत्यु के द्वार पर हैं!

“जनमेजय” जब युद्ध छोड़कर आए, उस समय “अभिजित” मुहूर्त्त था। न तो वे तक्षक को मार सके और न ही अब तक काबुल-कांधार का क्षेत्र शांत हुआ है। आज भी ये क्षेत्र विश्व-स्तरीय विद्रोह का केंद्र है, आतंकवाद का स्कूल कह सकते हैं!

आधुनिककालीन उदाहरणों में भारत-पाकिस्तान का बँटवारा ठीक रात्रि बारह बजे हुआ, स्थिति आज तलक विवादित है।

इक्कीसवीं सदी में आएँ, तो देखें “नोटबंदी”। रात्रि बारह से मुद्रा बंद हुयी और स्थिति आज तलक स्पष्ट नहीं कि वास्तव में लाभ का सौदा था या सरकार की किरकिरी।

अंततोगत्वा, ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि “कृष्ण” की पारलौकिक विवादित-सी शख़्सियत और द्वि-दिवसीय जन्मोत्सव के पार्श्व में अभिजित मुहूर्त्त में निर्मित हुयी नींव है।



अब आते हैं, ज्योतिष के प्रचलित पहलू कुंडली पर!

“कृष्ण” की कुंडली के विषय में वार्ता करें, तो अव्वल सूत्र यही कि ग्रह स्थिति को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करने वाली कोई कुंडली प्राप्त नहीं होती। चूँकि प्रभु का जन्म किसी ग्रह का अनुसरण अवश्य नहीं ही करता है।

फिर भी, प्रभु ने अपने जन्म समय को निश्चित करने हेतु ग्रहों को अनुग्रहीत किया! उनके जन्म हेतु समग्र नक्षत्रादिक ग्रहों को अपनी उच्चता में आना पड़ा! युगीन गणना में कुछ तथ्य प्राप्त होते हैं, जिनसे कुंडली निर्मित होती है :

1. जन्म के समय वृष लग्न था।
2. चंद्र-मंगल-शनि-बुध उच्च राशिस्थ, शेष सब स्वराशिस्थ।

अन्वेषणा तो क्या ही की जाए, उनकी कुंडली की। किंतु राहु-केतु की स्थिति में संदेह होने के कारण बड़ी रोचक व्याप्तियाँ हैं, वे अवश्य मननीय हैं।

महाकवि “सूरदास” का एक पद है, प्रभु की कुंडली का पूर्ण विवेचन! “सूर” कहते हैं, उनकी लग्न में चंद्र केतु एक साथ, वे ही आपको चौर्यभाव देते हैं, “चितचोर” हैं आप।

ये अन्वेषणा ज्योतिष-गणितीय रूप से कम बल्कि भावरूप से अधिक प्रासंगिक है। चूँकि लग्न में चंद्र-केतु का साथ व्यक्ति को भीरू बनाता है, अग्नि, जल, ऊँचाई से भयतीत रहने वाला।

किन्तु इस तरह के भीरू-गुण तो “कृष्ण” में न थे!

दूसरा कारण ये कि “कृष्ण” की कुंडली में शुक्र-शनि षष्ठम् भाव में स्थित थे। ये योग राजसी स्त्री द्वारा हत्या का योग निर्मित करता है। किंतु ये अपूर्ण है! चूंकि उनकी हत्या राजसी स्त्री ने नहीं की थी, बल्कि उसने श्राप दिया था। सो, यहाँ राहु का होना आवश्यक है, तिस पर ही राजसी स्त्री का श्राप और हत्या के त्रिकोण की तीसरी भुजा, “बहेलिया की उपस्थिति” पूर्ण होगी।

यही कारण है, कि राहु केतु की स्थिति संदेहास्पद है!

कुछ ज्योतिषी “सूरदास” का अनुसरण करते हैं, और कुछ “कृष्ण” के जीवन की सत्य घटनाओं का। भक्तवत्सल भगवान श्री “कृष्ण” ने, सूरदास की अन्वेषणा वाली कुंडली को भी सत्य सिद्ध करने योग्य तमाम चरित्र अपने जीवन में उत्पन्न किए हैं।

ऐसे प्रभु “श्रीकृष्ण” के जन्मदिवस की, समग्र विश्व को हार्दिक शुभकामनाएँ। 💝


✍🏻 Yogi Anurag
       Shatpath
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Comments

  1. अद्भुत!
    आप को भी जन्माष्टमी पर बधाई

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  2. Prabhu ke janm divas ki shubhkamnayen

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  3. दिल अत्यंत खुश हो जाता है, आपका लेख पढ़कर। धन्यवाद ऐसे ज्ञान वर्धक लेख के लिए। जय श्री कृष्ण, जय श्री राम

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  4. श्री कृष्ण की ही तरह आप भी अपनी लेखनी से हम सबका मन मोह लेते हो।

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  5. *नंदोत्सव* की हार्दिक शुभकामनाएं ।
    प्रथम प्रयास शनैः शनैः आनंदोत्सव में परिणित होगा ।🙏🏼

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  6. वाह! अद्भुत् जानकारी।💖

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