रामकथा में रंधावे
यों तो मार्शल कौम “रंधावा” के तमाम इतिहास पर सिख-कथाओं का अधिपत्य है। किन्तु “दारासिंह रंधावा” ने रामायण में श्री हनुमान जी का किरदार निभा कर सदा सर्वदा के लिए अमृत्व-सा पा लिया।
“रंधावों” के लिखित इतिहास का आरंभ श्री नानक साहब के साथ ही हुआ, जब पहले पातशाह शहर “अमृतसर” व शहर “गुरुदासपुर” के बीच कहीं थे। अब ये मालूमात तो “माझे” की कछारी मट्टी ही दे सकती है कि पातशाह आ रहे थे अथवा जा रहे थे। लिखा-मिटा ये ही तथ्य मिलता है कि वे “अमृतसर” से करीब बाईस मील दूर थे।
निकट ही कुछ बस्तीनुमा गाँव भी थे। जैसे कि धरमूचक्क, चन्ननके, भोलेवाला और सैदपुर आदि। वर्तमान में ये तमाम “श्री हरगोविंदपुर” जाने वाली सड़क पर आते है।
हाँ तो साहिबान, पातशाह क्या देखते हैं कि एक बांका नौजवान पशुओं को चराने में अपने जवानी झौंक रहा है। पातशाह ने उसके माथे की लकीरों में तमाम “रंधावे” जाटों का सुनहला और रक्तिम भविष्य पढ़ लिया। नाम पूछा तो बताया, “बूढ़ा सिंह रंधावा”।
पातशाह मुस्कुरा उठे, ऐसा बांका नौजवान और नाम बूढ़ा सिंह! तूने जी ली अपनी जवानी, चल मेरे साथ चल। -- इस तरह बाबा बूढ़ा रंधावा (बाबा बुड्ढा सिंह) ने तमाम “रंधावों” के लिए सिखधर्म में प्रविष्ट हो जाने का मार्ग प्रशस्त किया।
हालाँकि खालसा तलवारों को “रंधावों” के हाथ आने के लिए महाराज रणजीत सिंह की प्रतीक्षा करनी पड़ी थी!
वस्तुतः “रंधावा” शब्द इस प्रजाति के नाम का तद्भव शब्द है। इनका विशुद्ध नाम “रणधावा” है, यानी कि रणभूमि में सबसे अग्रिम पंक्ति में रहकर पैदल और घुड़सवार धावा बोलने वाला जत्था।
ब्रितानी काल में प्रशासक बनकर भारत आए “हेनरी ग्रिफिन” ने अपनी ऐतिहासिक खोजों में “रंधावों” को ख़ास स्थान दिया है। उनकी किताबों में इस तरह की तमाम मार्शल कौमों के लिए एक नाम मिलता है : “द जाट क्लैन”।
हालाँकि रंधावों का इतिहास बस यही नहीं है, केवल इतना ही नहीं है। बल्कि इनकी जड़ें इतिहास प्रसिद्ध महाराज “ययाति” के निष्कासित पुत्र “यदु” तक जाती हैं।
लगभग सभी इतिहासकारों ने इस जाति को शकों और हूणों के संपर्क में आकर जाट बने एक यदुवंशी शाखा के रूप में माना है, जो पहले पहल शूरसेन महाजनपद से कंस अथवा जरासन्ध के कारण भटकता हुआ सतलज नदी के उत्तर के कछारी मैदान “माझे” में जा बसा। कालान्तर में दक्षिण के कछार पर भी “रंधावों” की बस्तियां हो गईं और इस मैदान को “मालवा” का नाम मिला।
बहरहाल, बहरकैफ़।
ये तो थी “रंधावों” के शानदार इतिहास की एक छोटी-सी बानगी! इसी वंशबेल में श्री दारासिंह जी का जन्म हुआ था। उनका जन्मस्थान वही था, जहां बाबा बूढ़ा रंधावा पशु चरा रहे थे : धरमूचक्क।
सदा सर्वदा गँवई जीवन-शैली को जीने वाले दारासिंह जी बड़े गर्व से बताया करते कि मैं धरमू रंधावे की सत्रहवीं पीढ़ी का बंदा हूँ। आज भी, गाँवों में अपनी पूर्वज-पीढ़ियों की समझ रखने वाले को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
दारासिंह का बालपन एक निम्न-मध्यवर्गीय घर में जन्मे सिख लड़के जैसा था, जहां सात-आठ बरस में ही लड़के पर खेती-बाड़ी के काम सीखने का दबाव रहता है। पिता “सूरत सिंह” सिंगापुर में कमाते थे। भले मजदूरी करते, मग़र आबोहवा ने उन्हें सिखा दिया था कि बच्चों का पढ़ना बड़ा जरूरी है।
हालाँकि पढ़ाई में अव्वल होने के बावजूद, दारासिंह जी की स्कूली पढ़ाई आठ नौ बरस का होने में ही छूट गई। अब वे पशुओं के चारे की व्यवस्था करते और सुबह शाम एक फ़ौजी बाबा “शाम सिंह” के बागीचे में पढ़ने जाते।
बड़े हुए तो पिता के नक्शे-क़दम पर सिंगापुर जा पहुंचे और पिता अपने वतन लौट आए। उनदिनों के सिंगापुर में, भारतीय मजदूर कुश्ती के बड़े शौकीन थे। “हैप्पी वर्ल्ड” देसियों का अखाड़ा था और “ग्रेट वर्ल्ड” गोरों का।
तक़रीबन 1948 से शुरू हुआ दारासिंह जी का कुश्ती-सफ़र, सन् 1968 में विश्व चैंपियन बनने तक ज़ारी रहा। जनाब दारासिंह ने इस ओहदे पर अपना अधिकार सन् 1983 में पेशेवर कुश्ती से संन्यास लेने तक जमाए रक्खा।
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यों तो एक जीवन का वास्तविक कहन एक पुस्तक ही कर सकती है। एक लेख तो मात्र ओस की कुछ बूंदों जैसा ही है, जिससे आंशिक शीतलता भले मिले, मग़र प्यास बुझना नामुमकिन।
मग़र फिर भी, दारासिंह जी के जीवन में कुछ मोड़दार घटनाएं हुई, जो न होतीं तो शायद दारासिंह एक इंसान की श्रेणी से उठकर एक बेहतरीन याद की भांति स्थापित नहीं हो पाते।
इन घटनाओं में एक घटना आज़ादी के आसपास की है, जब दारासिंह जी पहली बार अमृतसर की हद से निकल कर मद्रास बंदरगाह पहुँचे। उनकी मंजिल सिंगापुर ले जाने वाला जलपोत था। जलपोत का आवागमन अनियमित था, सो प्रतीक्षारत यात्रियों के लिए बंदरगाह ही रैन-बसेरा बनता और वही मॉर्निंग-बीच!
इन्हीं दिनों दारासिंह जी ने कल्पनाशीलता के काम, एक औपन्यासिक किरादर “जानी चोर” को खूब पढ़ा था। इतना ज्यादा कि वो किरदार इनके दिमाग पर हावी हो गया। अब इन्हें हर ओर चोरी के नए नए तरीके सूझने लगे।
दारासिंह जी अपने साक्षात्कारों में बड़ी बेबाक़ी से बताया करते थे कि उन्होंने कुल चार बार चोरी की!
पहला शिकार बंदगाह पर सोता एक यात्री ही बना। उसका बटुआ एकदम खाली था, मग़र एक किताब के पन्नों में दो दो रुपए के नोट नत्थी किए थे। दारासिंह जी ने बड़ी ईमानदारी से उसकी आधी रकम उड़ा दी।
दूसरी चोरी एक साधु की झोली थी। मिला कुछ भी नहीं। तीसरी चोरी एक औरत का हार था। और चौथी चोरी में सिंगापुर की फौज का तेल से भरा टैंकर ही गायब कर दिया।
इस चौथी चोरी के बाद संतुष्टि मिल गई कि अब हम “जानी चोर” से कई गुना शातिर हो गए हैं। वास्तव में, ये तमाम कृत्य एक सत्रह-अठारह साल के लड़के ने किए, जो ये जाँचना चाहता था कि वो “जानी” जितना जीनियस है या नहीं!
-- इन तमाम चोरियों का ज़िक्र दारासिंह जी ने तब भी किया, जब श्री रामानंद सागर ने उन्हें श्री हनुमान जी का किरदार पेश कर दिया। वास्तव में, शरारतें किस मानव ने अपने बालपन में नहीं होतीं? किन्तु उन्हें यूँ स्वयं-स्वीकार्य करना ही उस मानव को महामानव बना देता है।
चौर्यगाथाओं को सुनकर श्री रामानंद बोले :
“दारासिंह जी, आप जिस पटकथा में काम करने जा रहे हैं, जानते हो उसके रचनाकार को दुनिया डाकू कहकर बुलाती थी। ऐसे में, तुम हनुमान क्यों नहीं बन सकते?”
-- अंततः दारासिंह जी ने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कुरा कर किरदार को स्वीकार लिया!
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ग़ौर किया जाए तो मालूम होता है कि दारासिंह जी का तमाम मुखमंडल तो मेकअप ने ही ढांक लिया था। किंतु फिर भी, उन्होंने अपनी मध्यम आकार की आंखों, चंचल पलकों और घन-गंभीर भौहों से सिल्वर स्क्रीन पर कमाल का जादू कर दिया था।
एक ओर जहां तकनीक और रील-अस्पष्टता ने अन्य किरदारों के उभार का मार्ग अवरुद्ध किया, वहीं इसी बाध्यता ने दारासिंह जी के रूप में चार-चांद लगा दिए। उनका नब्बे प्रतिशत अभिनय नेत्रों पर टिका हुआ था।
और मजाल है कि एक बार भी उनके नेत्रों से श्री तुलसी के हनुमान सुलभ उत्तरदायित्व व चिंता का लोप हुआ हो!
बड़ा रुचिकर प्रसंग है, जब पम्पा सरोवर के निकट पहुँचे श्रीराम-लखन की प्रच्छन्न अगवानी करने हनुमान जी आ पहुँचे हैं। तुलसी का मानस कहता है कि श्री हनुमान ने अपने वार्तालाप की लगभग हर पङ्क्ति में “वन” शब्द को उचार है :
१) छत्री रूप फिरहु बन बीरा।
२) कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी।
३) सहत दुसह बन आतप बाता।
-- यानी कि श्रीराम के वनगमन मात्र से चिंतित हो जाने वाले व्यक्तित्व को निभाना किसी के लिए सरल न होने वाला था। मग़र ये ऐतिहासिक कार्य नानक-कथाओं के “रंधावों” द्वारा किया जाना था। सो, बखूबी सम्पन्न हुआ!
श्री दारासिंह जी के बारे में, एक आख़री और रोचक बात ये भी है कि आज देश के आपदकाल में जिस तरह पूंजीपति लोग आगे आकर अपनी कमाई का भाग अर्पित करते हैं, आज़ाद भारत में ये प्रथा चलाने का श्रेय दारासिंह जी को ही जाता है।
उन्होंने ही सन् 1965 के युद्ध में लाखों की सहायता देकर इस परंपरा की नींव डाली थी! ऐसे महान व्यक्तिवत्व को शत शत नमन पहुँचे।
अस्तु।
Written By : Yogi Anurag
Shatpath (Telegram)
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