गङ्गा-जमुनी तहज़ीब


आलेख को आरंभ करने से पूर्व, मैं उस धूर्त मानुष की बुद्धि को नमन करता हूँ, जिसने इस शब्दबँध को ईज़ाद किया।

आहा! कैसा मोहपाश-सा शब्दबँध है, हिन्दू धार्मिक महत्त्व वाली दो प्रमुख उत्तर भारतीय नदियों के नाम का प्रयोग कर अरबी टेक्स्चर में निर्मित। गङ्गा-यमुना के इस दोआब की भोली-भाली विशाल हृदय की आबादी को छलने का जितना कार्य इस शब्दबँध ने किया है, उतना तो पूरी पूरी किताबें न कर सकें।

वाकई! ये किसी शब्दबँध के सामर्थ्य की अतिरञ्जना है, कि उसके पक्ष में एक भी (नॉट अ सिंगल वन) तर्कबीज उपलब्ध नहीं और वो विषैले दरख़्त की भाँति फ़ैल गया। जबकि पड़ताल की जावै तो कलई खुलती है कि इस्लामिक आक्रान्ताओं ने गङ्गा-यमुना के दोआब का क्या हश्र किया था।

जबकि होना तो ये चाहिए था कि यदि इस्लामिक आक्रान्ता वाकई में गङ्गा-यमुना के दोआब को संस्कृतियों के मिलन का क्रीड़ा-आँगन मानते, तो वे हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों को न तोड़ डालते।

किन्तु ऐसा कुछ था ही नहीं!

गङ्गा-यमुना का मिलन प्रयाग में होता है। उस पवित्र शहर को भी इस्लामिक आक्रान्ताओं ने नहीं बख्शा था। और आज बात करते हैं, गङ्गा-जमुनी तहज़ीब की?

प्रयाग की मुख्य मस्जिद को जोड़कर कुल चार मस्जिदें (मऊ आइमा, शहबाज़पुर, कोह इनाम), दो कब्रिस्तान (जिनमें से एक गुलाबरी) और एक एक बाग़ (खुसरो) व किला (अकबर) -- इतने इस्लामिक आक्रान्ताओं के प्रतीक, उन स्थानों पर खड़े हैं, जो हमारे पूर्वजों के मंदिर हुआ करते थे।

किन्तु ये विनाश सम्पूर्ण नहीं। इससे कहीं अधिक नाश, पूरे दोआब में मचाया गया है। सो, अब हम उसी तांडव की दिशा में चलते हैं, जो इन आक्रान्ताओं ने गङ्गा-जमुना के दोआब में किया!

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गङ्गा के किनारे बसे दो प्रमुख दोआबी शहरों का ज़िक्र करें तो प्रयाग से इतर बिजनौर और कानपुर का नाम सामने आएगा।

बिजनौर के खेड़ा, कीरतपुर, मंडावर, नेथौर और सेहारा में एक एक मंदिर को तोड़कर एक एक मस्जिद का निर्माण इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा किया गया। यहाँ तक कि नजीबाबाद का पत्थरगढ़ किला और कीरतपुर का मस्जिद से लगा किला भी, इसी प्रकार मंदिरों को तोड़ कर बने हैं।

कानपुर की बात करें तो मकनपुर में एक मंदिर के शिखर को ध्वस्त कर उसे शाह मदार की मज़ार का रूप दिया गया था। इसी शहर के जाजमऊ में प्राच्य हिन्दू मंदिरों के रौंद कर काला की मस्जिद और एक जामी मस्जिद खड़ी की गई थी, जिसका पुनर्निर्माण सन् सोलह सौ बयासी में किया गया।

कानपुर के ही दो और मंदिरों का नाश, सन् तेरह सौ छः-सात में भी हुआ। यहाँ आज क्रमशः अलाउद्दीन मख़्दूम शाह का दरगाह और ईदगाह हैं। और इस तरह मंदिरों की टूटन और अपने पुत्रों के सोग-अश्रुओं को अपनी धार में लेकर गङ्गा प्रयाग पहुँच जाती हैं।

और यमुना की प्रतीक्षा करती हैं!

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दूजी ओर से यमुनानगर, बागपत, दिल्ली, नॉएडा, मथुरा, आगरा, फिरोज़ाबाद, इटावा और हमीरपुर से होकर आती हुईं “यमुना” प्रयाग पहुँच जाती हैं।

आइए, ज़रा देखें तो कि यमुना के दामन में गङ्गा-जमुनी तहज़ीब का क्या नजराना है?

यमुनानगर और बागपत, ये दोनों जाट-बाहुल्य क्षेत्र थे। आज भी हैं। सो, यहाँ इस्लामिक आक्रान्ताओं की एक न चली। जो आए, जाटों की तलवारों के भोज-उत्सव बन गए। यहाँ के पूरे क्षेत्र में, किसी भी मंदिर के नाश का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

नाश की कहानी दिल्ली से आरंभ होती है! यानी कि प्राच्य ढिल्लिका नगरी, जिसे आक्रान्ताओं ने सात सात बार तोड़ा, मगर वो फिर खड़ी हो गई। इसका दोष मात्र इतना था कि ये इस्लामिक नक्शों में समरकंद को जोड़ने वाले रेशम मार्ग पर दर्शाई जाती थी।

मस्जिद, मकबरे, मज़ार, मदरसे और दरगाह -- ऐसा कौनसा इस्लामिक प्रतीक है, जिसे ढिल्लिका के मंदिरों को तोड़कर उनके सीने पर न खड़ा किया गया हो। मेरे शब्दों की दुनिया के दोस्तो, ढिल्लिका नगरी की पीड़ाएँ, अयोध्या नगरी से कम नहीं।

किन्तु हम हिन्दू सगर्व कहते हैं कि हमने सदा ही धर्म को व्यापार से अधिक महत्ता दी है। यही योग्य भी है। सो, आज अयोध्या हमारे पास है। किंतु दिल्ली तो समूची इस्लामिक ही दृष्टिगत होती है!

दिल्ली के पश्चात् यमुना का प्रवेश मथुरा में होता है। ये स्थान भी आयोध्या और काशी की भांति हमारे तीन प्रमुख बिंदुओं में से एक है, श्रीकृष्ण की जन्मभूमि है। यहाँ जन्मस्थान सहित कई मंदिरों को तोड़कर दो मस्जिद, दो मज़ार और एक एक ईदगाह व दरगाह का निर्माण किया गया है।

इसके पश्चात् आगरा को लें, तो जाहिर है कि लंबे समय तक मुगलों की राजधानी रहे शहर का क्या हश्र हुआ होगा। आगरा में बहुत से मंदिरों को तोड़कर कुल आठ मस्जिदें, दो दरगाह और कई सारे इस्लामिक प्रतीक निर्मित किए गए हैं।

भारत का इतिहास अकबर को महान कहता है न? लज्जित होता हूँ, ऐसे इतिहास पर!

-- इस कथित महान व्यक्ति ने यमुना के किनारे बने एक लाल पत्थर के जैन मंदिर को देखकर एक लाल वर्ण का किला बनाने की प्रेरणा ली और उसे तोड़कर लाल किला बनवाया।

यमुना के अगले पड़ाव फिरोजाबाद में, इतनी सफाई से नाश किया गया कि मंदिर तोड़कर निर्मित की गई मस्जिदों के निरीक्षण में केवल एक ही मस्जिद चिन्हित हो सकी।

अगले पड़ाव इटावा के औरैया कसबे के दो मंदिर तोड़े गए, मुख्य शहर का एक और निकटवर्ती कसबे का भी एक मंदिर तोड़कर मज़ार प्लस मस्जिद बनाई गई। ठीक इसी तर्ज पर, हमीरपुर में चार मकबरे और दो दो मस्जिद व दरगाह मंदिरों को तोड़कर निर्मित किए गए।

इस तरह, अपने तटवर्ती नगरपुत्रों का सोग बहाती हुईं यमुना प्रयाग जा पहुँची और अपनी पीड़ाओं की पूँजी सहित गङ्गा में मिल गईं!

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ऐसी विनाश-यात्रा को पढ़कर एक आम नागरिक विचारता है : “क्या ये है इस्लामिक आक्रान्ताओं की गङ्गा-जमुनी तहज़ीब?”

-- तहज़ीब के स्थान पर ऐसा तांडव दिखाया है, तो भला शेष प्रदेशों में इन लोगों ने क्या किया होगा?

चकित हुए विचारते रहिए!

वस्तुतः हुआ ये है कि जहाँ जहाँ “ज” और “य” का कॉन्फ्लिक्ट हुआ है, वहाँ वहाँ इस्लामिक कट्टरवाद ने स्वयं को उससे जोड़ा है।

जैसे कि हिब्रू बाइबिल में “जैकब” आए तो वे इनके “याकूब” बन गए। “जोसेफ़” आए तो वे “यूसुफ़” कहलाए। और भारतभूमि की “यमुना” बन गईं “जमुना”।

-- अब कोई इनसे पूछे कि मध्य-एशिया में तो आप “य” पर दाँव खेलते हैं, फिर यहाँ के “य” से “यमुना” को छोड़ अपने चिरशत्रु यहूदों का नॉमनक्लेचर “ज” से “जमुना” अपना लिया!

गङ्गा भी हमारी और यमुना भी हमारी। आप आए, तांडव मचाए और फिर गङ्गा-जमुनी तहज़ीब का नाट्य रच दिया। मैं वाकई उस आदमी को प्रणाम करना चाहूंगा, जिसने मध्य-एशिया के “ज-य” विवाद को यहाँ इतने सुन्दर मोहपाश का रूप दिया!

मात्र एक शब्दबँध से इतना प्रभाव उत्पन्न किया है कि उसके समक्ष ढेंरों पुस्तकें नतमस्तक हो जावें!

इति गङ्गा-जमुना।


Written By : Yogi Anurag
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