पूर्वी अयोध्या


ये कहानी इतिहास के उन पन्नों की है, जिन्हें आज फड़फड़ाने की भी इजाज़त नहीं!

सदियों पहले, कमसकम आठ सदी पहले, भारत के एक अज्ञात क्षत्रिय राजवंश का युवा राजपुत्र राज्य से निष्कासित कर दिया गया। उसका अपराध क्या था, ये तक उगलने की इजाज़त इतिहास के पन्नों को नहीं।

इतिहास के टूटे पुर्ज़े, कई कड़ियों में, बस इतना बता पाते हैं कि उस राजपुत्र को न केवल राज्य में, बल्कि इस पूरी भारतभूमि में उसके निवास करने पर मनाही थी।

वैसी स्थिति में वो कहाँ जाता?

उत्तर का छोर पकड़ता तो रम्यकवर्ष का अज्ञात क्षेत्र था। जो वो पश्चिम का मार्ग लेता, तो म्लेच्छों के क्षेत्र में निहत्थे क्षत्रिय का होना घोर अदूरदर्शिता कहलाती। और दक्षिण में तो समुद्र तक महान भारतभूमि ही फैली थी, जहाँ उसका निवास निषिद्ध था।

वैसी स्थिति में, वो जाता तो कहाँ जाता? केवल पूरब ही सुरक्षित विकल्प था, सो उस निष्कासित राजपुत्र के पाँव भी पूरब की ओर मुड़ गए। और वो सुदूर पूरब के द्वीप स्यामदेश पर जा पहुँचा।

उस राजपुत्र ने सुदूर पूरब में प्रवास किया, निवास किया, भोजन आदि की नियमित व्यवस्था की और तब कहीं जाकर उस क्षेत्र की लोकमान्यताओं से लेकर संस्कृति और राजनीति तक को समझा!

तत्पश्चात् उस निष्कासित राजपुत्र ने सेना निर्मित की, स्यामदेश के तत्कालीन शासक राजवंश पर आक्रमण किया, और विजय के पश्चात् उसने संसार को बताया कि वो अपने आर्य संस्कारों को भूला नहीं है, वो अपने राष्ट्र और उसकी यशस्वी परम्परा के वाहक पुरुषों को भूला नहीं है।

उस राजपुत्र ने अपने जीते हुए भूभाग का नामकरण “अयोध्या” किया। यों तो “अयोध्या” का अर्थ ही यही है कि उस भूभाग पर युद्ध न हो, किंतु पूर्वी “अयोध्या” की स्थापना ही युद्ध के ठीक बाद में हुई थी।

वस्तुतः युद्धपर्व के समापन में ही शांतिपर्व का प्रवेश हो पाता है। युद्ध की सभी संभावनाओं का समापन, केवल एक महायुद्ध से ही संभव है!




पूरब की “अयोध्या” तो बन गई और तिस पर भी आर्य क्षत्रिय का शासन हो गया, किंतु हमारा धर्म हमें दमन नहीं सिखाता। हमारे ऐतिहासिक राजाओं ने प्रजा की इच्छाओं को ही सर्वोपरि माना है।

पूर्वी “अयोध्या” की प्रजा यशस्वी परम्परा “ताई” से ताल्लुक़ रखती थी। इसी के नाम पर स्यामभूमि को आधुनिक काल में “थाईलैंड” पुकारा गया है।

आर्यावर्त के उस निष्कासित राजपुत्र ने स्यामदेश के सांस्कृतिक परिवेश को नहीं बदला, बल्कि स्वयं अपनी परम्पराओं को “ताई” परिवेश में ढाल लिया। पहला बदलाव था, राज्य के नाम का ताई-उच्चारण शैली में प्रवाहित हो जाना।

पूर्वी “अयोध्या” का ताई-नाम “अयूथया” पुकारा गया! और राजधानी को “अयुध्या” कहा गया!

वस्तुत: राजधानी, राज्य व राजवंश तीनों के नाम, एक ही शब्द “अयोध्या” से प्रणीत थे। वैसा भाषाई आश्चर्य इतिहास में दूजा कोई नहीं मिलता।

“अयूथया” राजवंश के प्रथम इतिहास उल्लिखित राजा का नाम रामाथिबोदी प्रथम मिलता है। अवश्य ही, ये नाम ताई-नामशैली से प्रभावित है।

हालाँकि यों नहीं कहा जा सकता कि वे ही निष्कासित राजपुत्र थे। किंतु इतना अवश्य है कि वे इस वंश के प्रथम यशस्वी सम्राट अवश्य थे!

वे सन् तेरह सौ पचास के काल में राजा थे, किंतु आज भी, थाईलैंड की राजधानी में रामाथिबोदी के नाम पर बड़ा ही प्रसिद्ध हॉस्पिटल है। यानी कि ताई-स्मृतियाँ उन्हें अब भी सहेजे हुए हैं।




“अयूथया” राज्य की स्थापना के समय, जो भूभाग प्राचीन ताई-राजवंशों के अधीन रह गया था, वो स्यामदेश का पूर्वी भाग था। उस राज्य का नाम “सुखोथाई” था।

किंतु सन् चौदह सौ अड़तीस में, “सुखोथाई” सम्पूर्ण विलय “अयूथया” में हो गया। उन दिनों “अयूथया” के राजा बोरोम्माराचा द्वितीय हुआ करते थे और “सुखोथाई” के राजा पुत्रहीन थे।

“सुखोथाई” की राजकुमारी का विवाह बोरोम्माराचा से हुआ और उन दोनों का पुत्र रामेसुअन, पूरे स्यामदेश का अधिपति बन गया।

यदि इतनी अधिक सत्ता, सम्पत्ति और सेना का उपयोग दिग्विजय में न हुआ, तो उसका अंतिम उपभोग क्या? सो, रामेसुअन ने कम्बोडिया पर आक्रमण कर दिया और उसके प्रमुख नगर “अंगकोर” तक अपना साम्राज्य विस्तार किया।

यही “अंगकोर” नगर, प्रसिद्ध अंकोरवाट मंदिर के लिए प्रसिद्ध है!

अब “अयूथया” की संरचना प्राचीन आर्यवर्त के राज्यों की भाँति हो गयी थी, एक चक्रवर्तिन दिग्विजयी सम्राट और तमाम अधीनस्थ करद राज्य।

इस “अयूथया” की समृद्धि इतनी थी कि उसके व्यापारिक सम्बंध जापान, वियतनाम, चीन और भारत से थे। साथ ही, महाद्वीपीय व्यापारिक तंत्र का फैलाव स्पेन, हॉलैंड, फ्राँस और पुर्तगाल तक था।

ये सुनहरा कालखंड राजा नरई का समय था, सन् सोलह सौ छप्पन से अट्ठासी तक। राजा नरई और राजा लुई चौदहवें के बड़े गहरे मैत्री सम्बंध थे।

किंतु, राजा नरई के उत्तरवर्तियों के हाथ में आई “अयूथया” राज्य की तलवार कमज़ोर पड़ गई। और इस कमज़ोरी के साथ विनाश की घड़ी ने भी प्रवेश किया।

सन् सत्रह सौ पैंसठ में “बर्मा” राज्य की मात्र पचास हज़ार सैनिकों की सेना ने आक्रमण किया और दो बरस तकचले इस युद्ध में “अयूथया” पराजित हो गया। पराजित राज्य का क्या हश्र होता है, ये सर्वविदित है।

बर्मियों ने, सन् सत्रह सौ सरसठ में राजधानी “अयुध्या” को जलाकर सम्पूर्ण भस्म कर दिया। “अयूथया” की सम्पूर्ण सांस्कृतिक थाती को, समृद्ध पुस्तकालय को, निर्दोष कलाकृतियों को और यहाँ तक कि ऐतिहासिक अभिलेखों के गृह तक को जला कर नष्ट कर दिया।

अब वहाँ केवल आधे-अधूरे-से सीमेंटी वस्त्रों से झाँकती, नग्न-अर्धनग्न छोटी लखौरी ईंटें ही शेष हैं। और शेष हैं, ताई-शैली में बनीं तीन शंक्वाकार पथरीली आकृतियाँ, जो तत्कालीन “अयूथया” के वैभव और पराभव की अथक कथा सुना रही हैं।

अस्तु।


Written By : Yogi Anurag
                     Shatpath (Telegram)

Comments

Popular posts from this blog

रवींद्र जैन और राजकमल

रामकथा का निमंत्रण

रामराज्य