अपने अपने राम


बड़ा बयान है : "राम का कोई जीवित वंशज हो तो सम्मुख आए!"

और इससे भी बड़ी बात ये है कि इस बयान से समूचा हिन्दू जनमानस पीड़ित नहीं हुआ है। तमाम जातीय समूह ऐसे भी हैं, जो इसे केवल सवर्णों या केवल क्षत्रियों का अपमान या उनपर प्रश्नचिन्ह मान कर मन ही मन खुश हो रहे हैं।

जानते हैं इसका क्या कारण है?

इसका कारण है, एक बड़ा प्रसिद्ध फ्रेज : "अपने अपने राम!" ,बड़ी शिद्दत से इसे लगभग हर हिन्दू मानता है कि हर एक के राम अलग हैं!

बस यहीं, इसी फ्रेज पर आकर, ठीक यहीं इसी बिंदु पर राम को लेकर हिन्दू जनमानस में लेयर्स बन जाती हैं। हर एक के व्यक्तिगत मत की अपनी एक अलग लेयर है। और इन्हीं लेयर्स के बीच में आए सूक्ष्म अंतर में विरोधी तत्त्वों का प्रवेश होता है।

जबकि होना ये चाहिए था कि राम केवल "अपने" होते, न कि अपने अपने!

मैं कहता हूँ कि आज कोर्ट द्वारा दिया गया बयान न केवल समूचे हिन्दू समाज का अपमान है, न केवल उनपर लगाया गया प्रश्नचिन्ह है बल्कि ये बौद्ध समाज के समूचे अस्तित्व का प्रश्न है।

चूंकि कपिलवस्तु का शाक्यकुल भी सूर्यवंशी था। भगवान् बुद्ध भी श्रीराम की परंपरा से आते हैं। अगर श्रीराम का कोई जीवित वंशज ही नहीं, तो बौद्ध धर्म का तो अस्तित्व ही नहीं रहा फिर।

राम केवल मेरे नहीं, राम सबके हैं और अपने अपने नहीं, बल्कि केवल "अपने" हैं!

बहरहाल, बहरकैफ़।

जिस तरह सरकार इस राष्ट्र के विकास हेतु गुजरात मॉडल का हवाला देते नहीं थकती, उसी प्रकार मैं राम को बचाए जाने के लिए थाई-मॉडल का हवाला दूंगा। मैं अकेला नहीं, बल्कि उस मॉडल को जानने के बाद ये हवाला आप सब देंगे।

एक उच्च कोटि की तार्किक और भरपूर विज्ञापित घेराबंदी के तहत थाईलैंड की भूमि को केवल एक ही "पर्पज" हेतु घूमने फिरने की जगह बता कर न केवल भारतीयों बल्कि शेष विश्व की दृष्टि में भी अस्पर्श्य घोषित किया जा चुका है। आप जानते हैं, मैं किस "पर्पज" की बात कर रहा हूँ!

ऐसा इसलिए किया गया ताकि आस्तिक हिन्दू वहाँ के उस मॉडल को देखने और महसूसने से वंचित रह जाए, जो राम को बचाने हेतु थाई जनता व सरकारों के मिलेजुले परिश्रम ने प्रस्तुत किया है।

हुआ कुछ यों था कि सदियों पहले भारत से राम के वंशजों का एक जत्था थाईलैंड जा पहुंचा था। और उन्होंने किस तरह (अपने अपने राम को नहीं) "अपने" राम को बचाया है, उसका थाई मॉडल प्रस्तुत किया है, वो अनूठा है, श्लाघनीय है!

सोशल मीडिया के स्थापित गद्यकार श्री त्रिलोचन नाथ तिवारी जी ने पिछले दिनों एक पाक्षिक धारावाहिक लिखा था। उसका नाम "मैं कौण्डिन्य" था। उसमें भारतवर्ष के एक गुरुकुल का निष्काषित शापित विद्यार्थी अश्वत्थामा की सहायता से पूरब में कंबोडिया नामक राष्ट्र का निर्माण कर देता है।

ठीक ऐसे ही, वृन्दावनलाल वर्मा का एक हिन्दी नाट्य है। उसका नाम "पूरब की ओर" या "पूर्व की ओर" है। इसमें पल्लव वंश का एक निष्काषित राजपुत्र पूरब के एक द्वीप, कदाचित् सुमात्रा या जावा, की यात्रा करता है और "वीर भोग्या वसुंधरा" की तर्ज पर वहां भी पल्लव वंश की नींव डालता है।

(ये हिन्दी नाट्य कुछ दशक पहले तक इंटरमीडिएट के पाठ्यक्रम में हुआ करता था।)

तो दोस्तो, मेरे शब्दों की दुनिया के साथियो! ऐसा नहीं है कि जन्मभूमि से सुदूर जाकर राज्य स्थापित करना कोई असंभव कार्य था। भूमि चहुंओर फैली है और योद्धा अपने सामर्थ्यानुसार उसका उपभोग करते ही हैं!

रामवंशियों के एक जत्थे द्वारा ऐरावत हाथी के वंशजों की भूमि "थाई-भूमि" पर बसाए गए शहर का नाम भी "अयोध्या" था!

जोकि कालान्तर में थाई-जिह्वा और भाषा के प्रभाव में आकर "अयूथया" हो गया। आज ये स्थान "अयूथया", बैंकॉक से उत्तर दिशा में जाने पर लगभग पचास मील पर पड़ता है।

इस राज्य के निर्माण में काम आए राजवंश के विषय में कभी पृथक् से लिखूँगा। फ़िलहाल उनका वो मॉडल चर्चा में आए, जिसके द्वारा उन्होंने आज तलक भी राम को बचाए रखा है!

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"अयूथया" के राजमहल का पहला ही भवन "हो हेम मोन्तिएन देवराज" है, यानी कि देवराज इंद्र का देवस्थान। मंदिर बहुत छोटा है, ख्मेर शैली का प्रासादनुमा मठ, जैसे कि बंगभूमि में मठों की बनावट।

इस मंदिर के शिखर पर कलश या पताका नहीं बल्कि महर्षि दधीचि के त्याग का महाप्रतीक "वज्र" लगा हुआ है!

इस मंदिर के उपरान्त तीन भवन हैं। पहला है "सबाकर्ण राजप्रयून", यानी कि राजवंशियों का सभागार। यहाँ प्रतिदिन राजवंशी जमा हुआ करते थे और अपने आराध्य राम का भोरपूजन किया जाता था।

दूसरा है "ऐसावान धिपाया असना", यानी कि व्यक्तिगत मुक्ति का दैवी आसान। और तीसरा है एक महाकाक्ष, जिसे आजकल कॉन्फ्रेंस हॉल कहा जा सकता है। इसका नाम है : "फ्रा थिनांग वरोभास बिर्मान", यानी कि ज्योतिर्मय स्वर्गिक आवास!

इसके पश्चात् महल का आतंरिक भाग कुछ दूरी पर से शुरू होता है। उसका नाम है "देवराज कुंलाई", अर्थात् देवराज निर्गमन!

यहाँ भारतवर्ष की विचारधारा का एक अनूठा निर्माण किया गया है। आतंरिक भाग में निवास करने वाली महिलाओं के शील और सम्मान की दृष्टि से ऐसी भित्ति निर्मित है, जिससे केवल वे ही बाह्य वातावरण को देख पाती हैं। कोई बाहरी आँख उन्हें नहीं देख सकती।

आश्चर्य ये है कि इस भित्ति को बनाने में किसी प्रकार के कांच का प्रयोग नहीं किया गया है!

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ये समूचा परिसर छोटी लखौरी ईंट से बना हुआ। अवश्य ही रामवंशियों का जत्था पूरी योजना के साथ थाई-भूमि गया था, अपने साथ कुशल राजमिस्त्रियों और ईंट पकाने वाले गुणी लोगों को भी लेकर गया था।

अन्यथा थाई-भूमि में लखौरी ईंट कैसे बनती?

आज की भारत सरकार विकास हेतु गुजरात मॉडल प्रस्तावित करती है। क्या "अपने" राम को बचाने के लिए थाई-मॉडल का अनुसरण कर सकती है?

क्या हमें भी अयोध्या में एक बेहतरीन प्रवेशद्वार, जिसके शिखर पर राम के आराध्य महादेव का त्रिशूल स्थित हो, और फिर आतंरिक भाग में तीन भवनों का परिसर मिल सकता है?

या हमारी, हमारे वंशजों की तमाम उम्र केवल हलफनामे और साक्ष्य देने में ही जाएगी! ख़ैर, सरकार समझदार है, हमें भी समझदार बनने की आवश्यकता है। राम "अपने अपने" नहीं है, बल्कि केवल "अपने" हैं, आप सबके हैं, यहाँ तक कि पूर्वी भारत के शाक्यकुल के भी श्लाकापुरुष राम ही हैं।

ये केवल क्षत्रियों की या और बृहत्तर रूप में कहूँ तो केवल हिंदुओं की वंशावली का मसला नहीं है, बौद्धों का मसला भी है। इसे सभी कौमों द्वारा, कमसकम हिन्दू और बौद्धों द्वारा गंभीरता से लिया ही जाना चाहिए!

इति नमस्कारान्ते।


Written By : Yogi Anurag
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