श्रीरामविवाह
आज श्रीराम और सीता के विवाह की वर्षगांठ है।
अगहन के शुक्लपाख की पञ्चमी को ही सीता का पाणिग्रहण संस्कार हुआ था।
यदि महर्षि वाल्मीकि द्वारा उल्लिखित ग्रह-नक्षत्र और विंध्य-हिमालय ऊंचाई से गणना की जाए, तो ये विवाह आज से लगभग आठ लाख पंद्रह से बीस हज़ार वर्ष पूर्व हुआ।
और भी सूक्ष्म गणना में प्रविष्ट हों, तो मालूम होता है कि श्रीराम द्वारा शिव-धनुष टूटने और सीता के पाणिग्रहण संस्कार में नौ दिवस का अंतर है।
यूं कहें कि शिव-धनुष अगहन के कृष्णपाख की एकादशी को टूटा!
अलबत्ता, शिव-धनुष "पिनाक" एक पृथक् विषय है। तो उसके बारे में फिर कभी। फ़िलवक्त, सीता और श्रीराम की कथा।
बहुधा, ये माना जाता रहा है कि प्रेम "निर्गुण" होता है। प्रेम होने के लिए किसी भी गुण का होना आवश्यक नहीं।
यदि बहुत आवश्यक हो भी, तो प्रेम के लिए कोई एक ही गुण पर्याप्त है। किंतु श्रीराम और सीता का प्रेम तो द्विगुण प्रीति है। वे परस्पर द्विगुण प्रीतिपात्र हैं।
श्रीराम को सीता का पातिव्रत्य और सौंदर्य भाता है। वहीं सीता श्रीराम के सद्गुण समुदाय और पराक्रम पर वारी गयी हैं।
श्रीराम और सीता, एक दूजे से अभिन्न हैं। मानस और रामायण, के अंतिम खंडों में आने वाली "सीता निर्वासन" की कथा, पूर्ण रूपेण क्षेपक है।
आइये, इस शुभ विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर, सीता वनवास के एक और कुत्सित प्रयास के तोरण को, तर्कबाण से बींधकर, भूमि पर गिराएं।
##
मेरे हाथ में ग्रंथ है : "कुन्दमाला"। इस ग्रंथ में श्रीराम द्वारा सीता परित्याग का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है।
"नाट्यशैली" में लिखे गए इस ग्रंथ में, कवि "दिङ्गनाग" ने अपनी दृश्य योजना और काव्य कौशल से, सीता परित्याग को पूर्णतया सत्य ही सिद्ध कर दिया होता।
किन्तु वे एक त्रुटि कर गए। एक बड़ी भारी त्रुटि।
सर्वप्रथम, ये ग्रंथ "बर्नेल" नामक ब्रितानी इतिहासकार को "तंजावुर" महल के ग्रंथालय में मिला था।
इस पूरे नगर "तंजावुर" का सर्वाधिक प्राचीन बृहदेश्वर मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी का है। इस महल के सर्वाधिक नवीन हिस्से भी सोलहवीं शताब्दी से अधिक नवीन नहीं हैं।
अर्थात् "कुन्दमाला" का लेखन भी इन्हीं पञ्च सौ सालों के भीतर का है।
किन्तु "कुन्दमाला" का प्रथम उल्लेख ग्यारहवीं सदी के समसामयिक नाट्यदर्पण में मिला। अतः इससे नवीन नहीं है ये।
कवि "आनंदवर्धन" के "महानाट्य" में भी "कुन्दमाला" का एक श्लोक उल्लिखित है। अतः इसे आठवीं सदी का माना जाए।
कहीं कहीं, "दिङ्गनाग" और "कालिदास" में समवर्ती होने का भी उल्लेख है, किन्तु उसके ठोस साक्ष्य नहीं मिलते!
अतः, इस नाट्य का काल आठवीं या नवीं सदी ही माना जाता है। भला, छः सहस्र वर्ष पूर्व की घटना का वर्णन, घटना के समकालीन "वाल्मीकि" से अधिक प्रासंगिक कैसे हो सकता है!
यदि सीता जी का वनवास हुआ भी होता तो वे "वाल्मीकि" के आश्रम पर आतीं, न कि "दिङ्गनाग" के।
तर्कों की कोई सीमा नहीं। ये भी कहा जा सकता है कि "दिङ्गनाग" को अपने "बौद्ध" धर्म से अधिक रुचि "सनातन" साहित्य में थी। अतः जो कार्य "वाल्मीकि" ने नहीं लिखा, वो "दिङ्गनाग" ने लिखा!
##
"दिङ्गनाग" लिखते हैं :
"श्रीराम यज्ञ का हेतु लेकर नैमिषारण्य आते हैं। जब वे गोमती के किनारे भ्रमण कर रहे हैं। तो देखते हैं क्या, कि बड़ी सुन्दर गुंथी हुयी माला जलधाराओं के साथ बहती आ रही है। ये माला कुन्द के पुष्पों से बनी हुई है। माला के अवगुंठन को देखकर श्रीराम जान जाते हैं कि हो न हो, ये माला सीता ने ही गूँथी है। और वे उस माला के विपरीत मार्ग का अनुसरण करते हुए वहां पहुंच जाते हैं, जहाँ देवी सीता गोमती की आराधना कर रही हैं।"
इतना ही नहीं, कवि ने छः अंकों के इस नाट्य के प्रथम अंक में ही सीता से ये प्रतिज्ञा करवाई है कि यदि मेरा प्रसव सफलतापूर्वक हुआ तो मैं एक वर्ष तक माता गोमती को प्रतिदिन एक "कुन्दमाला" अर्पित करुँगी!
संस्कृत का विद्यार्थी होने के कारण, कवि के आयोजन कौशल्य निछावर होने को जी चाहता है। किन्तु विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण, कवि का असत्य भी दृष्टिगत हो जाता है।
और एक एक पङ्क्ति सनातन साहित्य के प्रति साजिशन प्रतीत होती है।
इस असत्य की जड़ें "कुन्द" पुष्प में हैं। आइये, "कुन्द" पुष्प की चर्चा करें!
##
ये वही "कुन्द" पुष्प है, जिसकी श्वेतिमा की तुलना देवी सरस्वती से की गयी है : "या कुन्देन्दुतुषारहार धवला..."।
ये वही पुष्प है, जिसके द्वारा "कालिदास" के "मेघदूत" की यक्षणियाँ अपने अपने अलकों को सजाती हैं।
"कालिदास" ने ही अपने नाट्य "मालविकाग्निमित्रम्" में "मालविका" के तारुण्य की तुलना ऐसी "कुन्दलता" से की है, जिसमें पुष्प और नवपल्लव लगे हैं।
आधुनिक वैज्ञानिक रूप से चर्चा करें तो मालूम होता है कि "कुन्द" चमेली वर्ग के ओलिएसी कुल का सुगन्धित पौधा है।
इसका नाम है : "जैस्मीनम प्यजूबेसेन्स"। और चमेली का : "जैस्मीनम गैंडफोरम"।
ये शब्द, अरबी के "यास्मीन" शब्द से बना है। इसकी मधुर सुगंध के कारण। इस समूह में मोतिया, मोगरा, चमेली, पीली चमेली, बेला आदि पुष्प आते हैं।
सन् पंद्रह सौ साठ में ये पुष्प, स्पेनी नाविकों के हाथों यूरोप पहुंचा!
इस पुष्प का वर्णन कवि "राजशेखर" की "काव्यमीमांसा" में "पथिकों की गति धीमी करने वाला" कह कर किया है।
"राजशेखर" कहते हैं :
"जब सूर्य अपना रथ उत्तरायण की ओर घुमा लेता है तो वसंत के आगमन की दुंदभि बजती है। तमाम अशुद्धियों को लेकर, पवन दक्षिण की ओर चला जाता है। उस समय कलियों के भार से झुकी हुई "कुन्दलता" पर पुष्प खिलते हैं!"
अर्थात् "कुन्द" खिलने का सही समय "पौष" के उपरांत "माघ" है। पौष, माघ और फाल्गुन ही "कुन्द" के तीन माह हैं।
किन्तु नाट्यकार श्री "दिङ्गनाग" ने सीता जी से वर्षभर "कुन्दमाला" की प्रतिज्ञा करवाई है।
जब ये पुष्प केवल एक या अधिकतम दो माह के लिए पृथ्वी पर आता है, तो भला वर्षभर की प्रतिज्ञा मिथ्या न हुयी?
देवी सीता और मिथ्या प्रतिज्ञा? संभव ही नहीं। अतः कथानक ही असत्य है। नाट्य "कुन्दमाला" भी असत्य और कवि "दिङ्गनाग" भी असत्यभाषी।
इस तरह, सीता वनवास की कथाओं में एक सुंदर तोरण के रूप में शोभित "कुन्दमाला" के असत्य का मानमर्दन हुआ।
आप सबको श्रीराम और सीता जी के वैवाहिक वर्ष गाँठ की हार्दिक शुभकामनाएं।
इति नमस्कारान्ते।
Written By : Yogi Anurag
Shatpath (Telegram)

Comments
Post a Comment