राम राम कह राम सनेही
प्रेम हो तो “दशरथ” सा, अन्यथा न हो!
असत्य कहते हैं लोग, कि हम तुम बिन मर जायेंगे। कोई किसी के बिना नहीं मरता। सिवाय “दशरथ” के!
केवल “दशरथ” ही “श्रीराम” के लिए प्राण तजते हैं। शेष सब वादे खोखले हैं।
सोचता था, इस लेख का शीर्षक “राम राम कह राम सनेही” रखूँगा। किंतु अशीर्षण ही उचित है।
उक्त शीर्षक “श्रीरामचरितमानस” के “अयोध्याकांड” से उद्धृत है।
पूरी पंक्ति है : “राम राम कह राम सनेही/पुनि कह राम लखन बैदेही।”
[ राम का नाम तीन बार उचारने के बाद, एक बार लखन और एक बार बैदेही कहते थे। ]
ये था उनका श्रीराम के प्रति प्रणयमान!
आज “अयोध्या”, “श्रीराम” और “दशरथ” का ऐक्य हुआ है। हालाँकि अभी आरंभ है, अभी राह कठिन है “पनघट” की। किंतु आरंभ सुन्दर लगा।
ये है, श्रीराम की वनवास समाप्ति का प्रथम चरण!
“श्रीराम” का वनवास बिन “दशरथ” किस भाँति समाप्त होगा? उन दोनों जैसा अमर-प्रेम तो अप्राप्य है। कितनों ने उनसे पूर्व प्रेम किया, कितने ही प्रेमी समकालीन रहे और कितने ही उनके पश्चात् प्रेम करते रहेंगे।
किंतु। उन-सा प्रेम असंभव है। श्रीराम-दशरथ सा प्रेम अपरिमेय है।
इक्ष्वाकु वंश में, “सुदक्षिणा” और “दिलीप” हुए। दोनों ने एकसाथ नंदिनी गौ सेवा का स्थिरभक्तियोग साधा। किंतु न साध सके “दशरथ” सा “विरह-योग”, श्रीराम के प्रति।
इसी वंश में, जब “इंदुमती” ने विदा ली तो राजा “अज” फफक कर रो पड़े थे। सिर्फ़ रोए थे, “दशरथ” की भाँति “श्रीराम” गमन के साथ प्राण-गमन न किया था।
स्वयं “श्रीराम” के साथ मिथिला की राजकुमारी वन-प्रान्तर में हमकदम बनकर चलीं थीं। कुछ समय बिछोह भी हुआ, किन्तु पुनः मिलन हो गया। शाश्वत मिलन हुआ।
बहरहाल, “दशरथ” सा शाश्वत बिछोह न मिला किसी को!
सरल स्थितियों में प्रेम “अधिकार” होता है। प्रेम बनता है “कर्तव्य”, जब जटिल होती हैं स्थितियाँ।
जो प्रेम “दशरथ” ने “श्रीराम” से किया, वह और कहाँ?
“शकुंतला” के “दुष्यंत”, “बसंतसेना” के “चारुदत्त” तो कभी वस्तुओं की भाँति क्रय विक्रय को जाती “मदनिका” के “शर्विलक”।
उक्त प्रेमों में वो बिछोह कहाँ जो “ययाति” को स्वर्ग से गिर कर हुआ था। वो तो केवल तुलसी के “दशरथ” ही को प्राप्त है।
“मालविका” और “अग्निमित्र” या फिर “उर्वशी” और “पुरूरवा”, तो कभी “हिडिम्बा” और “भीम”।
किंतु इन अनंत बिछड़नों में भी वो सोग कहाँ जो बिना अमृत के चंद्रमा को हो। वो केवल “दशरथ” का ही आग्रह है : “अमिअ रहित जनु चंदु बिराजा।”
“शर्मिष्ठा” और “ययाति” का नदी नाव संजोग हो, या हो “अहिल्या” और “गौतम” सी निकटता में दूरस्थता हूँ। या हो “मेघदूत” के “विशालाक्षी” और “हेममाली” सी एक बरस की दूरी।
इन सब में से कोई भी “जनु जरि पंख परेउ संपाती” की भाँति प्रेम के आकाश न गिरा। केवल “दशरथ”
गिरे और संसार से चले गये।
“रत्नावली” और “उदयन”, न “महाश्वेता” और “शुकनास” और न ही “कादम्बरी” और “चन्द्रापीड” ने प्रेम शिक्षण लिया।
“दमयंती” भी बिछड़ी “नल” से किंतु जीवित रहीं वे।
कोई भी नहीं, एक एकाकी उदाहरण न मिलेगा समग्र वांगमय में, जो ये कह सके कि ये प्रेम दशरथ-सा प्रेम है।
“दशरथ” की चाहनाएँ, “श्रीराम” के प्रति इतनी थीं कि उन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में शब्द दिए जाएँ तो कहना होगा : “तुमपे मरते हैं, हम मर जाएँगे। ये कहते हैं, हम कर जाएँगे।”
जब यम ने “दशरथ” के प्राण हरे, तब तुलसी लिखते हैं : “राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम/तनु परिहरि रघुबर बिराहुँ राउ गयउ सुरधाम।”
राम राम राम कह कर गये थे “दशरथ” और आज योगी आदित्यनाथ जी ने “श्रीराम” के साथ ही उनकी “अयोध्या” वापसी का मार्ग सुनिश्चित किया है।
मैं बरसों से इस चिंतन को करता था, कि यदि कोई किसी से प्रेम करे तो दशरथ-सा करे। “दशरथ” की भाँति करे। इस सदी का आभार, जो “श्रीराम” के वनवास में साथ जो बिछोह “दशरथ” को मिला था, ये इस सदी ने भर दिया। बहुत बहुत आभार।
इति।🙏🏻🚩
Written By : Yogi Anurag
Shatpath (Telegram)
Dada Facebook pr share kr rha hun
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