हम जटायु


आज कार्तिक शुक्ल द्वादशी है और सदियों पश्चात्, अंततोगत्वा, प्रभु श्रीराम अपने अयोध्या निज आगमन के मार्ग पर प्रथम चरण धर चुके हैं।

सुखद आश्चर्य ये है कि ये पूरा आयोजन बड़ा असूचित रहा!

ठीक भी है, अब हम सब श्री भरत जितने भाग्यशाली कहाँ कि प्रभु अपने आगमन की ख़बर भिजवाते। बल्कि हम तो जटायु की भांति आहत घायल होकर श्रीराम की प्रतीक्षा कर रह रहे थे।

मेरे राम, हम सब तो आपके जटायु थे! बाबा तुलसी ने हमारे ही लिए लिक्खा था : “आगें परा गीधपति देखा / सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा!”

-- अर्थात् प्रभु ने अपने मार्ग में आगे पड़े विशालकाय पंछी को देखा, जोकि श्रीराम की चरण रेखाओं का चिंतन कर रहा था!

सो, मेरे राम! हम आपकी प्रतीक्षा में, दंडकारण्य की किसी पगडण्डी पर, अपनी आस्था-पाँखों को खो चुके जटायु थे। और हमारे पास आपके चरण-तलवों की लालिम-श्वेतिमा के सुमिरन के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं।

गौर से देखा जावै, तो पीठ मोड़कर दौड़ जाने वालों के तलवे ही देखने वाले के नेत्रों का केंद्र बनते हैं। सो, वनगमन के प्रसंग में श्रीराम के तलवे ही अयोध्यावासियों के चंद्रमा बने होंगे, प्रतिपल दूर दूर और सुदूर होते जा रहे तलवे!

हमने तो श्रीराम का वनगमन नहीं देखा था, जटायु ने भी प्रभु का वनगमन नहीं देखा था। किन्तु फिर भी, सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा? श्रीराम की चरण-रेखाओं का चिंतन?

भला, श्री जटायु ने तो कभी प्रभु की छवि देखी नहीं थी, वैसी स्थिति में उन्हें चरण-रेखाओं के सुमिरन का सद्-विचार कहाँ से प्राप्त हुआ?

-- इस सुचिंतित प्रश्नावली का समाधान, देवी सीता की हरण प्रसंग में जटायु से हुई एक लघु पीड़ादायक भेंट की सूक्ष्म अन्वेषणा से प्राप्त होता है!

##

त्रेता-रामायण में देवी सीता का अपहरण हुआ था, वहीं कलजुगी-रामायण में हमारी आस्था का अपहरण हुआ है। कुलमिला कर लब्बोलुआब ये है कि दोनों ही युग श्रीराम के वियोग से भरे हुए हैं।

एक युग देवी सीता के विरह का प्रतीक है और एक है हमारी आस्था के, हमारी भक्ति के विरह का!

हमारी पीढ़ी को तो श्रीराम के गमन की अंतिम छवि का कोई अवसर नहीं मिला है, किन्तु देवी सीता के पास अवश्य इस दृश्य की धरोहर थी। इसपर कोई बहुत गहन विचार नहीं करना होगा, कि देवी सीता के अपहरण से पूर्व, उनके नेत्रों में श्रीराम की अंतिम छवि क्या थी?

ये छवि थी एक वल्कल-वस्त्रधारी राजपुत्र की, जोकि धनुष-बाण साधे मृग के पीछे दौड़ पड़ा!

इस छवि का उल्लेख अशोक वाटिका में हुई देवी सीता और श्री हनुमान की भेंट के प्रसंग में हुआ है : “जेहि विधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम / सो छवि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम!”

इसी वाटिका प्रसंग में, बाबा तुलसी आगे कहते हैं : “निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन / परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन!”

-- यानी कि देवी सीता अपने तलवों को देखती रहती हैं और प्रभु की अंतिम छवि का स्मरण करती रहती हैं!

ठीक इसी छवि का वर्णन वे अपने रुदन “राम राम हा राम पुकारी” में करती हैं, जिसे सुनकर जटायु आते हैं और रावण से संघर्ष में अपने पंखों को गवां कर प्रभु की प्रतीक्षा में पड़े हैं।

देवी सीता के रुदन से ही वे प्रभु के तलवों का महत्त्व जान सके। उन्होंने बिना श्रीराम को देखे, उन्हें अपना तमाम सुमिरन समर्पित कर दिया। और तब, श्रीराम आए!

श्रीराम ठीक वैसे ही आए, जैसे आज हिंदुओं की सदियों से चली आ रही आस्था-पांख कटने की पीड़ा का निवारण करने आए हैं। प्रभु की बहुत बहुत कृपा कि उन्होंने अपने उपासकों की तमाम परीक्षाएं लेने के उपरान्त, निज आगमन को स्वप्रशस्त किया।

सो, अब जटायु की ही भांति प्रभु के प्रेरणा-हाथों से हमारी तमाम दुश्चिंताओं का अंतिम संस्कार हो सकेगा!

जय श्रीराम। 🙏🚩


Written By : Yogi Anurag
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Comments

  1. जय श्री राम...💐..पूरा का पूरा खजाना ही मिल गया ब्लॉग पर...😊

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