अयोध्या जी-६


हे रामजन्मभूमि! सत्ताईसवीं मुक्तिगाँठ पर क्या लिख दें, हम रामभक्त? एक लेख तो क्या, एक ग्रन्थ भी पर्याप्त नहीं है, प्रिय रामभक्त बंधुओ।

चूँकि अयोध्या जी अपने आप में एक “ग्रन्थ”, एक “नदी” और एक “प्रजा” का सम्पूर्ण संयोजन हैं। दुनिया के किसी भी शहर का इतिहास उठा कर देखा जाए, उक्त तीनों चीज़ें एकसाथ किसी शहर के पास नहीं मिलेंगी।

-- यदि उस शहर के स्वामित्व में अपना “ग्रन्थ” होगा तो अब “नदी” शेष न होगी। यदि “नदी” रह गई होगी तो अब महज शहर बसा होगा, उसका कोई “ग्रन्थ” शेष न होगा। यदि “ग्रन्थ” और “नदी”, दोनों विद्यमान हैं, तो?

...तो इतिहास उठा कर देख लीजिए, निश्चित ही वो शहर ख़ाक में मिला दिया गया होगा!

समूचे संसार में, केवल और केवल अयोध्या जी ही हैं, जिनकी “प्रजा”, जिनका “ग्रन्थ” और जिनकी “नदी” अब तलक सुरक्षित है। यही कारण है कि इस नगरी के हृदयङ्गत वैभव के सम्मुख, इसका दुनियावी बेजोड़ आकर्षण भी फीका है।

भले इक्ष्वाकु, मांधाता, दिलीप, सगर, अज, दशरथ और श्रीराम जैसे राजाओं ने इस भूमि में धंसे पत्थरों को अपनी कुदालों से तराशा है, किन्तु फिर भी, संसार के हर हिन्दू के हृदय में एक अलग ही अयोध्या जी निर्मित की गई हैं।

और उनमें से हर एक के पास उसको देखने का अपना अलग नजरिया है!

ये कहना भी अतिशियोक्ति न होगी कि राष्ट्र में सौ करोड़ अयोध्या जी हैं। हर हिन्दू का हृदय अयोध्या जी है। ऐसी अभूतपूर्व व्यापकता कि भले कोई भी हिन्दू इस बात से अनिभिज्ञ हो, किन्तु वो हर पल अयोध्या जी को जीता है।

भला कैसे? वो ऐसे कि अयोध्या जी एक पवित्र नगरी हैं, वस्तुतः उनके लिए पवित्र जो एक ग्रन्थ का अनुसरण करते हैं। एक ग्रन्थ की अधिष्ठात्री नगरी हैं, अयोध्या जी। 

और उस किताब का ग्रन्थ का परिचय “रामायण” नाम से है!

कई मायनों में इस नगरी कुछ भी लिखा नहीं जा सकता, कोई ग्रन्थ भी नहीं। किन्तु ये अपने आप में श्रीवाल्मीकि का पुरुषार्थ है कि वे छः खण्ड, पाँच सौ सर्ग और चौबीस हज़ार श्लोक में इतिहास को उकेर गए।

हालाँकि इस इतिहास के इतर, इस नगरी के पास अब अपना वृत्तान्त है और अपने पाठक हैं।

प्राच्य सूर्यवंशियों, फिर बौद्धों और जैनियों से होते हुए मुस्लिम आक्रान्ताओं और फिर हिन्दू समाजसुधारकों से लेकर वर्तमान के प्रधानमंत्री मोदी तक, अयोध्या जी अपने इतिहास को दुहराती रही हैं।

ताकि “रामायण” की भविष्योक्ति अक्षुण्ण रहे।

जब “श्रीवाल्मीकीयरामायण” का सरल भावानुवाद “श्रीरामचरितमानस” के रूप में हुआ तो ये सार्वभौमिक पुस्तक बन गई। और इसके साथ ही, अयोध्या जी एक सार्वभौमिक नगरी बन गईं।

हर एक महान राजा में "श्रीराम" को देखा जाने लगा। हर एक विशेष मानुष में अवधी छवि आ गई। और हर सभ्यता ने अपनी एक अलग नई “अवधपुरी” बना ली, एक ऐसी नगरी जो वस्तुत: किसी की जागीर नहीं किन्तु हर एक सपनों में उसकी अपनी होती है।

इस नगरी की सबसे बड़ी जादुई नियति ये है कि यहाँ का सरदार बनने का सपना पालने वालों में से हर एक, चाहे वो बौद्धों के आचार्य हों या मस्जिद की नींव डालने वाले बाबर, आज का सैलानी हो या फिर पत्रकार, जो भी अयोध्या जी को “पाने” आया है, निराश हुआ है।

वो निराशा से घिर जाता है, जब देखता है एक नगरी को हर पल बदलते हुए, एक साथ फैलते और सिकुड़ते हुए, अनगिनत बार टूटी और फिर से निर्मित की गई नगरी।

किन्तु फिर भी, ये अयोध्या जी हैं, सब इन्हें अपनी संपत्ति बनाना चाहते हैं। ये सबका ख्वाब हैं, किन्तु हर कोई जो इन्हें केवल अपना बनाने की कोशिशों से आया, वो नष्ट हो गया।

ठीक वैसे ही नाश के सागर में जा गिरा, जैसे कि सत्ताईस बरस पहले बाबर का हश्र हुआ था!

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बाबर का ये नाश, कोई अनायास घटित हुई घटना नहीं थी, बल्कि हिन्दू जैसी एक सुषुप्त कौम के जागरण की लंबी कवायदों का परिणाम थी!

विहिप की ज्योति-यात्राएं और भाजपा का साझा कार्यक्रम “रथयात्रा” आदि आदि सब इस मुक्ति के निमित्त बने थे। विहिप का एक बड़ा प्रसिद्ध कार्यक्रम रहा, रामशिलाओं की स्थापना।

किन्तु इसकी पहुँच केवल तीन लाख स्थापनाओं तक थी। तकरीबन आधा देश, रामशिलाओं से वञ्चित रह गया था!

वैसी उपेक्षित स्थिति में, संघ ने राष्ट्र को छः भागों में सूचीबद्ध किया और फिर प्रखंड स्तर पर छः लाख स्थानों को चिन्हित किया, जहाँ दो कार्य होने थे। पहला कार्य था, चरणपादुकाओं का पहुँचना।

संघ की अंत्योदय इच्छाशक्ति का भान इस कार्यक्रम से होता है कि छः लाख गाँवों के देश को छः लाख प्रखंडों में सूचीबद्ध कर लिया गया।

कुल बारह हज़ार चरणपादुकाओं का पूजन वहाँ हुआ, जहाँ श्रीभरत ने प्रतीक्षाओं की चौदस बिताई थी। और फिर उन्हें देशभर में भेज दिया गया। हर गाँव में उनके उत्सवपूर्ण पूजन के पश्चात् प्रत्येक पचास गाँव के एक चिन्हित मंदिर में स्थापित कर दिया गया।

इस कार्यक्रम का दूसरा उद्देश्य था, प्रत्येक प्रखंड से कमसकम दस कारसेवकों की भर्ती। यानी कि पूरे भारत से कुल साठ लाख!

“कारसेवा” शब्द बड़ा रुचता है। वस्तुतः “कारसेवा” का तात्पर्य “कार्यसेवा” से नहीं बल्कि “करसेवा” से प्रकटा है। “कर” यानी की हाथों से की जाने वाली सेवा। सुखद आश्चर्य होता है कि ये शब्द गुरु नानकदेव की सिख-परंपरा से उपजा है।

सनातन परंपरा के अग्रजों को, जोकि श्रीनानक के यशस्वी शिष्य हुए, उन्हें इस विधि संघ ने अपना अगुआ बनाया था!

और फिर “अंग्रेजो भारत छोड़ो” की स्वर्णजयंती वर्ष पर, दिन था मगसर की शुक्ल द्वादशी, सहसा एक प्रहार हुआ और “रामद्रोहियो, भारत छोड़ो” की वैचारिक लहर समूचे भारत में फ़ैल गई।

इस लहर के कंपन-तरंगन को आज अभी और इसी वक़्त अनुभूत किया जा सकता है। हम कर रहे हैं, हमारी पीढ़ियां करती रहेंगी। इति नमस्कारान्ते।


Written By : Yogi Anurag
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